Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 505
________________ पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४८५ महात्मा पूर्वकृत कर्मों के शेष रह जाने से यथासमय मृत्यु प्राप्त करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वे देवलोक महर्द्धिक, महाद्युति वाले, महापराक्रमयुक्त, महायशस्वी, महान् बलशाली, महा प्रभावशाली तथा महासुखदायी होते हैं। देवलोक के तमाम सुखभोगों से वे सम्पन्न होते हैं। वे अपने (पुण्य कर्म के फल स्वरूप) दिव्य रूप, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, दिव्य-संहनन, दिव्य संस्थान, तथा दिव्य ऋद्धि द्युति प्रभा, छाया (कान्ति), अर्चा, तेज और लेश्या से दसों दिशाओं को आलोकित करते हैं, चमकाते हैं। उनकी गति और स्थिति कल्याणमयी होती है, भविष्य में भी वे भद्रक होने वाले देव बनते हैं। उनका शरीर प्रकाश से जगमगाता रहता है। यह द्वितीय स्थान आर्य है, यावत् समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला मार्ग है। तथा एकान्त सम्यक् और सुसाधु (बहुत अच्छा) मार्ग है।' तृतीय मिश्रस्थानः अधिकारी और उनके गुण तृतीय स्थान-धर्माधर्म या मिश्र स्थानपक्ष है। इसके अधिकारी व्यक्ति वे होते हैं, जो अल्प इच्छा वाले (सन्तोषी), अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं। वे धर्माचरण करते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति करते हैं, धर्म की अनुज्ञा देते हैं, यहाँ तक कि धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाते हैं। वे सुशील, सुव्रती, सुगमता से प्रसन्न होने वाले (उपशान्तक्रोधादि) और साधु (साधनाशील सज्जन) होते हैं। - एक ओर वे (किसी स्थूल या संकल्पी) प्राणातिपात से आजीवन विरत होते हैं, दूसरी ओर वे, सूक्ष्म तथा आरम्भी प्राणातिपात से निवृत्त होते हैं। इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से कथंचित् (स्थूल रूप से) निवृत्त और कथंचित् (सूक्ष्मरूप से) अनिवृत्त होते हैं। ये और इसी प्रकार के कई अन्य बोधिनाशक तथा अन्य प्राणियों को परितापदायक जो सावद्यकर्म (नरकादिगमन के कारणभूत यंत्रपीड़नादि कर्मादानरूप पापव्यवसाय खरकर्म) हैं, उनसे निवृत्त होते हैं, जबकि कतिपय अल्पसांवद्य कर्मों (व्यवसायों) से वे निवृत्त नहीं होते। मिश्रस्थानः अधिकारी श्रमणोपासकों के गुण, चर्या व्रत एवं पुण्य कर्म-प्रतिफल इस मिश्रस्थान के अधिकारी श्रमणोपासक होते हैं, जो जीव और अजीव के रहस्य के ज्ञाता, पुण्य-पाप के रहस्य को उपलब्ध किये हुए, तथा आम्नव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के ज्ञान में कुशल होते हैं। वे श्रावक असहाय होने पर भी देवगणों से सहायता की अपेक्षा नहीं रखते। इस प्रकार के अन्य कई गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है। १. देखें-सूत्रकृतांग श्रुः २, अ. २ , सू. ७१४ पृ. ९१ से ९६ तक (आ. प्र. समिति, ब्याबर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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