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४९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
फल विपाक भोगने पड़े हैं। जैसे-वध (दण्ड आदि से ताड़न, वृषण-विनाशनपुंसकीकरण), नासिका-कर्तन, कर्ण-कर्तन, ओष्ठ-छेदन, अंगुष्ठ छेदन, हस्तकर्तन, चरण-छेदन, नख-छेदन, जिह्वा-छेदन, अंजनदाह (गर्म लोहे की सलाइयों से आँखें फोड़ना), कटाग्नि-दाह (चटाई लपेटकर जलाना), हाथी के पैरों तले कुचलवाना, फरसे आदि से शरीर को फड़वाना, रस्सों से बाँधकर वृक्ष पर लटकाना, त्रिशूल, डंडा, बेंत, लट्ठी आदि से प्रहार करके शरीर को चूर-चूर करना, तपतपाते रांगे, शीशे एवं तेल से शरीर को अभिसिंचित करना, लोहे की भट्टी (कुम्भी) में पकाना, शीतकाल में अत्यन्त ठंडा पानी शरीर पर डालना, काष्ठ, हांडी आदि में पैर फंसाकर मजबूती से बांधना, भाले आदि शस्त्रों से छेदन-भेदन करना, शरीर की खाल उधेड़ना, वस्त्र लपेटकर तन पर तेल डालकर दोनों हाथों को जलाना, इत्यादि अतिदारुण, असह्य दुःख भोगने पड़ते हैं। पापी जीवों द्वारा अनेक भवों में बांधे हुए पापकर्मों के दुःखद फलों (विपाकों) को भोगे बिना वे छूटते नहीं हैं, क्योंकि कर्मों के फलों को भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं मिलता है। हाँ, जिन्होंने चित्तसमाधिरूप धैर्य के साथ (समभाव से फल भोगने हेतु) कमर कस ली है, उनके पापकर्मों की शुद्धि भी तप संयम द्वारा हो जाती है।'' सुखविपाक में पुण्यकर्मों तथा धर्माचरण से प्राप्त सुखदायक फलों का वर्णन ___अब सुखविपाकों का वर्णन पढ़िये-"जो मनुष्य शील (ब्रह्मचर्य या सदाचार), संयम, नियम, गुण (मूलगुण-उत्तरगुण) और तप (बाह्य एवं आभ्यन्तर) के अनुष्ठान में संलग्न हैं, जो अपने आचार का भलीभांति पालन करते हैं, ऐसे सुविहित साधुओं (साध्वियों) के प्रति अनुकम्पा प्रयोग (सेवाभक्ति) करते हैं, उनके प्रति त्रिकाल में शुद्ध श्रद्धा, बुद्धि रखते हैं, उन्हें निर्दोष आहार-पानी देते समय, देने से पूर्व और देने के पश्चात् हर्षानुभव करते हैं, उन्हें अत्यन्त सावधान मन से हितकर, सुखकर, एवं निःश्रेयस्कर उत्तम शुभ परिणामों से प्रयोगशुद्ध (उद्गमादि दोषों से रहित) आहारपानी देते हैं; वे मनुष्य श्रेष्ठ पुण्यकर्म-राशि का उपार्जन करते हैं, बोधिलाभ को प्राप्त होते हैं और मनुष्य-नारक-तिर्यञ्च-देव गतियों में गमनसम्बन्धी अनेक (संसार) परावर्तनों को परीत (सीमित-अल्प) कर देते हैं। तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक
और मिथ्यात्व-रूप शैल (पर्वत) से संकीर्ण (संकट) है, गहन अज्ञानान्धकाररूपी कीचड़ से परिपूर्ण होने से जिसे पार करना अत्यन्त दुष्कर है, जिसका चक्रवाल (जलपरिमण्डल) जरा-मरण-योनि रूप मगरमच्छों से संक्षुब्ध हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायों रूपी श्वापदों (क्रूर हिंसक प्राणियों) से अतिप्रचण्ड एवं भयंकर है, ऐसे १. देखें-समवायांग समवाय ५ सू. ५५३ में "दुहविवागेसु णं पाणाइवाय सोहणं तस्स वावि
हुज्जा', तक का मूल पाठ और अनुवाद, (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. १८९
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