________________
कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ४९३ अनादि, अनन्त इस संसार-समुद्र को वे कैसे-कैसे पार करते हैं ? और किस प्रकार देवगणों में आयु का बंध करते हैं, तथा किस प्रकार सुरगणों के अनुपम विमानोत्पन्न सुखों का अनुभव करते हैं; तत्पश्चात् कालान्तर में वहाँ से च्यवकर इसी मनुष्यलोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण सुडौल शरीर, उत्तम रूप, उत्तम जाति-कुल में जन्म लेकर, किस प्रकार के आरोग्य, बुद्धि-मेधा से सम्पन्न होते हैं ? मित्र, ज्ञाति, स्वजन, धन, धान्य, वैभव आदि से सम्पन्न, सारभूत सुखसम्पदा के समूह से समृद्ध अनेक प्रकार के कामभोग-जनित सुखरूप विपाक (फलभोग) से प्राप्त उत्तम सुखों की अविच्छिन्न परम्परा से पूर्ण रहते हुए भी उन सुखभोगों को (अनासक्तिभाव से) भोगते हैं। उन भोगों में वे फंसते नहीं; तप संयम का मार्ग अपनाकर सर्वकर्म क्षय करने का पुरुषार्थ करते हैं, ऐसे पुण्यशाली जीवों का इस सुखविपाक में वर्णन किया गया है।
इस प्रकार शुभ-अशुभ कर्मों के बहुविध विपाकों (फलों) का वर्णन इस विपाक सूत्र में जिनेन्द्र भगवान् ने संसारी जीवों को संवेग उत्पन्न करने हेतु किया है।' विपाक सूत्र आदि में विभिन्न व्यक्तियों के पाप-पुण्य कर्मों के फलों का ही लेखाजोखा
_ पाप और पुण्यकर्मों के इन्हीं दुःखदायक और सुखदायक विपाकों (फलभोगों) का वर्णन विपाक सूत्र के अतिरिक्त अनुत्तरौपपातिक, निरयावलिका आदि आगमों में भी उन-उन व्यक्तियों के जीवन में घटित घटनाओं के आधार पर किया गया है। आगमों की वाणी सर्वज्ञ आप्त महापुरुषों की वाणी है। उनकी वाणी में कहीं सन्देह, संशय, अविश्वास या अप्रामाणिकता की कोई गुंजाइश नहीं है। अतः पापकर्मों तथा पुण्यकर्मों का कैसा कैसा कटु-मधुरफल प्राप्त होता है, इसे आगमों में वर्णित आख्यानों के आधार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं। दुःखविपाक में पूर्वभव तथा इहभव में आचरित पापकर्मों तथा उनके फल का वर्णन
यह विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध दुःखविपाक है। इसमें १0 अध्ययन, दस पापकर्मा व्यक्तियों के नाम पर से प्रतिपादित हैं। सभी अध्ययनों में व्यक्ति द्वारा पूर्वभव में आचरित विविध पापकर्मों के बन्ध एवं संचय का वर्णन है। तदुपरान्त आगामी जन्मों में उत्तरोत्तर उनके द्वारा कृत पापकर्मों के कटु एवं त्रासदायक फलों की प्राप्ति का भी रोमांचक वर्णन है।
१. · देखें-समवायांग, समवाय ५ सू. ५५४ में "एत्तो य सुहविवागेसु णं सील-संजम-नियम... ... सुहविवागोत्तमेसु अणुवरय ......... २. (क) देखें, विपाक सूत्र की प्रस्तावना (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) पृ. १२ (ख) 'कम्मणामुदओ उदीरणा वा विवागो णाम।'
-धवला १४/५-६
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org