Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 558
________________ ५३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) अध्ययन किया । बहुत प्रकार की तपस्या की । अन्तिम समय में दो मास का संल्लेखना संधारा (१२० टाइम का त्याग ) करके आलोचना प्रायश्चित्त से आत्मा को शुद्ध करके यथासमय देहत्याग किया और दस सागरोपम की स्थिति वाले ब्रह्मलोककल्प नामक वैमानिक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वीरंगत देव वहाँ से च्यवकर इसी द्वारिका नगरी में बलदेव राजा की रेवतीदेवी की कुक्षि से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। पूर्वकृत शुभकर्मों के प्रभाव से इसे सुखद फल के रूप में ऐसी ऋद्धि एवं सम्पन्नता मिली है। भगवान् से पूछा गया कि क्या निषधकुमार आपके पास प्रव्रजित होगा ? भगवान् ने कहा - " अवश्य होगा।" एक दिन निषधकुमार को अपनी पौषधशाला में अर्धरात्रि में धर्मजागरणा करते हुए ऐसा सुविचार उत्पन्न हुआ कि “यदि भगवान अरिष्टनेमि यहाँ पधारें तो मैं गृहस्थ धर्म छोड़कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हो जाऊँ ।” भगवान् पधारे । निषधकुमार ने दीक्षा ली। सामायिक आदि ११ अंगों का स्थविरों से अध्ययन किया। अनेक प्रकार की उत्कट तपश्चर्या की । नौ मास से अधिक का श्रामण्यपर्याय चल रहा था। तपश्चर्या से शरीर कृश हो गया था। अतः यथावसर भगवान् से अनुज्ञा लेकर २१ दिन का संल्लेखना संथारा किया। भगवान् ने निषध अनगार के दिवंगत हो जाने पर वरदत्त गणधर द्वारा निषेध के भविष्य के विषय में पूछे जाने पर कहा - " वह सर्वश्रेष्ठ सर्वोच्च सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में विशुद्ध प्रीतिवंश नामक राजकुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा। स्थविरों से अनगार धर्म की प्रव्रज्या ग्रहण करेगा और अन्तिम समय में मासिक सल्लेखना की आराधना करके सर्वकर्मक्षय कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा । "" शेष अध्ययनों के कथानायकों का जीवनवृत्त भी प्रायः समान है। सिर्फ नामों में अन्तर है। तत्त्वतः सभी एक ही लक्ष्य को लेकर चले हैं । सबने तप-संयम की शुद्ध आराधना करके सिद्धि-मुक्तिरूप सर्वदुःखान्तरूप फल प्राप्त किया। इस प्रकार पुण्य और पाप के सुखरूप और दुःखरूप फल के निमित्त से भी सबने अन्त में अनन्त सुखरूप मोक्ष फल प्राप्त किया। 9. देखें- अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ४, पृ. २१३६ से २१३८ तक निषधकुमार का जीवनवृत्त । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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