Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 556
________________ ५३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) शरीर को बार-बार धोना हमारे लिए कल्पनीय नहीं है। तुम बार-बार शरीर के अंगोपांग धोती हो, अतः इस दोष (स्थान) की आलोचना करो। परन्तु भूता आर्या ने उनकी बात सुनी-अनसुनी कर दी। अलग उपाश्रय में रहने लगी। अब वह बेरोकटोक, बेखटके, स्वच्छन्द बुद्धि से बार-बार हाथ, पैर आदि अंगोपांग धोती रहती । वह भूता आर्या उपवास, बेला, तेला आदि अनेक प्रकार की तपस्या करती थी । बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन करके भूता आर्या ने उक्त दोष की आलोचना किये बिना ही यथासमय काल किया और सौधर्मकल्प (प्रथम देवलोक ) में श्रीवतंसक विमान में श्रीदेवी नाम की देवी के रूप में उत्पन्न हुई। एक बार भगवान् महावीर का समवसरण राजगृह में गुणशीलक चैत्य में लगा हुआ था, वह श्रीदेवी श्रीवतंसक विमान से अपनी चार हजार सामानिक देवियों तथा चार सपरिवार महत्तरिकाओं के साथ वहाँ आई । वहाँ उन्होंने बहुपुत्रिकादेवी की तरह नाट्य के विविध प्रयोग प्रदर्शित किये और वापस लौट गईं। भगवान् महावीर से पूछने पर उन्होंने फरमाया- इस प्रकार पूर्वभव में तप-संयम की साधना विराधकरूप से की, तो भी वह प्रथम देवलोक में श्रीदेवी नाम की देवी हुई, और ऐसी दिव्य ऋद्धि उपलब्ध और प्राप्त की। इसकी यहाँ एक पल्योयम की स्थिति है। यहाँ से च्यवकर यह महाविदेह में जन्म लेगी और चारित्र पालन कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगी।' शेष देवियों का जीवन : अन्त में पुण्य के सुखद फल की प्राप्ति शेष देवियों का जीवन भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि पुष्पचूला आर्या जी के पास दीक्षित होकर ये सभी किसी न किसी रूप में संयम के उत्तरगुणों की विराधिका हुईं। अन्तिम समय में अपने उत्तरगुण में लगे दोषों की आलोचना एवं प्रायश्चित्त ग्रहण न करने के कारण ये विराधिका हुईं। फिर भी तपस्या की आराधना से तथा मूलगुणों की सुरक्षा के कारण ये सभी सौधर्म देवलोक में अपने-अपने नाम से देवी बनीं। इन्हें अपने द्वारा उपार्जित पुण्यराशि का सुखद फल प्राप्त हुआ। वृष्णिदशा के कथानायकों का संक्षिप्त परिचय इसके पश्चात् निरयावलिका के पंचम स्कन्ध के पंचम वर्ग-वृष्णिदशा उपांग के २. १. देखें - अभिधान राजेन्द्र कोष, भा. ७, पृ. ८५७-८५८ में सिरिदेवी का जीवनवृत्त । देखें - णिरयावलिया शब्द के अन्तर्गत शेष देवियों का संक्षिप्त परिचय, अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ४, पृ. २११० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 554 555 556 557 558 559 560