Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 546
________________ ५२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) के समान था। वह पापकर्म और उसके दुःखद फल को मानता ही नहीं था। न ही उसकी कोई रुचि या श्रद्धा पाप-पुण्य के स्वरूप और फल को समझने में थी। परन्तु उसके जीवन में ज्ञानधन केशीश्रमण के सत्संग और उनसे धर्मश्रवण से नया मोड़ आया। वे अरमणीक से रमणीक बन गए। उन्होंने सम्यग्दर्शन के साथ नीति, न्याय, व्रत, नियम, सदाचार आदि से युक्त साधनापथ पर प्रस्थान किया। दूसरे शब्दों में कहें तो पाप के पतनपथ से हटकर पुण्य के उत्थानपथ पर जीवनरथ को मोड़ा। साधनामय जीवन अपनाने पर प्रदेशी नप की बार-बार कसौटी हुई, प्रलोभन और भय के प्रसंग भी आए। परन्तु वे स्वीकृत साधना-पथ से विचलित नहीं हुए। इसी अर्जित पुण्यराशि के फलस्वरूप उन्हें देवलोक में स्थान मिला। देवलोक की दिव्य ऋद्धि, सुख सम्पदा, वैभव, कान्ति, यश आदि उपलब्ध हुए। सूर्याभदेव के रूप में वे पुण्यफल भागी बने। निरयावलिका में पापफल के निमित्त से आत्मपतन की कथा इसके अनन्तर निरयावलिकासूत्र में ऐसी आत्माओं का वर्णन है, जिन्हें क्षायिक सम्यग्दृष्टि सम्पन्न भगवान् महावीर के अनन्यभक्त मगधसम्राट् श्रेणिक के पुत्र होने का सौभाग्य मिला। श्रेणिकनृप के कई पुत्रों ने श्रमणदीक्षा अंगीकार करके सर्वकर्मक्षय रूप मोक्ष प्राप्त किया, मगर निरयावलिका-वर्णित इन दस पुत्रों ने साधना का अवसर मिलने पर भी, तथा इन दसों की माताओं द्वारा साधनापथ अंगीकार करके प्रेरित करने पर भी वे साधना के शुद्ध पथ पर आरूढ़ न हो सके, और न ही गृहस्थ धर्म के व्रत नियम आदि अंगीकार करके पुण्य उपार्जन कर सके, पुण्योपार्जन की सुबोधि भी प्राप्त न हुई, न ही रुचि और श्रद्धा हुई। फलतः कोणिक द्वारा महाशिला कण्टक संग्राम छेड़ने पर उस अन्याययुक्त संग्राम में उन्होंने पूर्ण सहयोग दिया, निर्दोष नरसंहार किया, स्वयं भी उसी संग्राम में काल-कवलित हुए और मर कर नरकगति के अतिथि बने। कल्पावतंसिका में पुण्यफल के निमित्त से कल्पविमानवासी देवत्व का वर्णन ___ इसके पश्चात् कल्पावतंसिका सूत्र में उन दस आत्माओं का वर्णन है, जो अपनी तपोविशेष की साधना में रागांश होने से कर्मों का सर्वथा क्षय तो न कर सके, किन्तु पुण्योपार्जन के फलस्वरूप सौधर्मादि कल्पविमानवासी देवों में उत्पन्न हुए। उनकी शुभकर्मोपार्जन की साधना सफल हुई। पुष्पिता में पुण्योपार्जन के फलस्वरूप देवत्व प्राप्ति तदनन्तर पुष्पिका (पुष्पिता) सूत्र में उन साधक आत्माओं का वर्णन है, जिन्होंने अपने जीवन में असंयम का यथाशक्ति परित्याग करके संयमभावना पुष्पित की। उक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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