Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 540
________________ ५२0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) सुबाहुकुमार द्वारा सम्यक्त्वप्राप्ति तथा श्रावकव्रत ग्रहण सुबाहुकुमार भगवान् से धर्मकथा सुनकर मनन करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और उठकर उन्हें वन्दना-नमस्कार करके यों बोला-"भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, स्पर्शना, पालना और अनुपालना करता हूँ। परन्तु जिस प्रकार आपके श्रीचरणों में अनेकों राजा, सार्थवाह आदि गृहस्थ धर्म से साधुधर्म में प्रव्रजित हुए हैं, उस तरह प्रव्रज्या लेने में मैं अभी समर्थ नहीं हूँ। मैं इस समय आप से पांच अणुव्रत. एवं सात शिक्षाव्रतों वाला बारह प्रकार का गृहस्थर्म स्वीकार करना चाहता हूँ।" भगवान् ने 'तथाऽस्तु' (जहासुहं) कहकर अपनी स्वीकृति प्रदान की। फिर सुबाहुकुमार श्रावक के १२ व्रत ग्रहण कर जहाँ से आया था, वहीं वापस लौटा। सुबाहुकुमार की रूप-शरीर-सम्पदा तथा ऋद्धि के विषय में गौतम की जिज्ञासा __तत्पश्चात् इन्द्रभूति गौतम ने भगवान के समक्ष जिज्ञासा प्रकट की-“अहो भगवन्! सुबाहुकुमार बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोरम, मनोरमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप है। यह साधुजनों को भी इष्ट, इष्टरूप, यावत् सुरूप लगता है। भगवन्! सुबाहुकुमार ने इस प्रकार की उदार मानवीय समृद्धि कैसे उपलब्ध की, कैसे प्राप्त की ? कैसे यह उसके समक्ष उपस्थित हुई ? पूर्वभव में यह कौन था? यावत् इसका नाम, गोत्र क्या था? किस ग्राम या सन्निवेश को अपने जन्म से अलंकृत किया था? क्या दान देकर, क्या उपभोग कर, कैसे आचार का पालन करके और किस श्रमण या माहन के एक भी आर्यवचन का श्रवण कर सुबाहुकुमार ने ऐसी ऋद्धि उपलब्ध एवं प्राप्त की?" ... भगवान ने गौतमस्वामी की जिज्ञासा जानकर सुबाहुकुमार के पूर्वभव का पूर्वोक्त प्रतिपादन किया। और कहा-“सुबाहुकुमार को पूर्वोक्त महादान के प्रभाव से इस प्रकार की मानवसमृद्धि प्राप्त एवं उपलब्ध हुई है।''" । सुबाहुकुमार के उज्ज्वल भविष्य का फलितार्थ भगवान् ने उसके उज्ज्वल भविष्य का कथन किया, जिसका फलितार्थ यह थायह सुबाहुकुमार यहीं तक अपने द्वारा पूर्व में उपार्जित पुण्यराशि का व्यय नहीं कर देगा, अपितु अनेक बार उन्नत देवभव प्राप्त करके पुनः पुनः मनुष्यभव प्राप्त करेगा, जिसमें तप-संयम की आराधना करके पुण्यराशि में वृद्धि कर, आत्मा की उत्तरोत्तर अधिकाधिक विशुद्धि करेगा। और अन्त में महाविदेहक्षेत्र में मनुष्यरूप में जन्म लेकर तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना करके सिद्ध-बुद्ध, सर्वकर्ममुक्त एवं सर्वदुःख-मुक्त होगा। १. देखें-सुखविपाक अ. १ में वर्णित सुबाहुकुमार के वर्तमान भव के सुखद फल का वृत्तान्त पृ. ११७ से १२० तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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