Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 539
________________ कमों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५१९ (चादर) का उत्तरासंग किया। स्वागत के लिये सात-आठ कदम सामने गया। फिर अनगार को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया और उन्हें भोजनगृह में ले गया। फिर अपने हाथ से विपुल अशन-पान आदि का दान दिया। दान देने से पहले, दान देते समय और दान देने के पश्चात भी सुमुख के मन में आनन्द का अनुभव हुआ। सुमुख गाथापति ने द्रव्यशुद्धि, ग्राहक (आदाता) शुद्धि और दातृशुद्धिसहित त्रिविध त्रिकरण (मन वचन-काय की) शुद्धि पूर्वक सुदत्त अनगार को दान देने (प्रतिलाभित करने) से उस पुण्य के फलस्वरूप संसार परीत (संक्षिप्त) कर लिया और मनुष्यायु का बन्ध किया। उसके घर में निम्नोक्त पांच दिव्य प्रकट हुए-(१) लगातार स्वर्णवृष्टि, (२) पंचवर्णी कुसुमवृष्टि, (३) वस्त्रोत्क्षेप, (४) देवदुन्दुभि का बजना, और (५) आकाश से 'अहो दानं' की घोषणा। सुमुख गाथापति के सद्गुणों की प्रशंसा हस्तिनापुर के त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य मार्गों पर एकत्रित होकर अनेक मनुष्य परस्पर कहने लगे-धन्य है, सुमुख गाथापति, सुमुख गाथापति सुलक्षण है, कृतार्थ है, उसने जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया, जिससे इस प्रकार की ऋद्धि प्राप्त हुई।" सुमुख का जन्म अदीनशत्रु राजा के पुत्र सुबाहुकुमार के रूप में तथा विवाहादि - तत्पश्चात् सुमुख गाथापति सैकड़ों वर्षों की दीर्घायु का उपभोग कर यथासमय काल करके हस्तिशीर्ष नगर में अदीनशत्रु राजा की रानी धारिणीदेवी की कुक्षि से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। पांच धायों की संरक्षणता में उसका लालन-पालन हुआ, यावत् ७२ कलाओं में प्रवीण हुआ। यौवनवय में पदार्पण होते ही माता-पिता ने पुष्यचूला प्रमुख पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ उसका विवाह किया। उनके लिए पहले से ५00 राजप्रासादों का निर्माण करवा रखा था। उनमें सुबाहुकुमार मानवोचित विषयभोगों का उपभोग करने लगा। सुबाहुकुमार ने भगवान् महावीर का धर्मोपदेश श्रवण किया एक बार भगवान् महावीर स्वामी उस नगर में पधारे। राजा अदीनशत्रु भी भगवत् दर्शन एवं देशनाश्रवण के लिए निकला। जमालिकुमार की तरह सुबाहुकुमार भी धर्मरथ में बैठकर भगवद्दर्शनार्थ पहुँचा। भगवान् ने सबको धर्मोपदेश दिया। समग्र परिषद्, राजा आदि धर्मोपदेश सुनकर वापस लौटे। १. देखें, सुखविपाक अ. १ में सुबाहुकुमार के पूर्वभव का वर्णन पृ. १२० से १२३ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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