Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 537
________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५१७ अंजूश्री योनिशूल की असह्य पीड़ा से व्यथित एक बार अंजूश्री के शरीर में योनिशूल (योनि में असह्य वेदना) नामक रोग फूट पड़ा। यह देख विजयमित्र नरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया-नगर के तिराहे, चौराहे यावत् सामान्य मार्गों पर जाकर घोषणा करो कि “जो कोई वैद्य, वैद्यपुत्र, विज्ञ या विज्ञपुत्र, चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र अंजूश्री देवी के योनिशूल रोग को उपशान्त कर देगा, उसे राजा विजयमित्र प्रचुर धन प्रदान करेंगे।" वैद्यादि भी विविध उपचार करके असफल रहे इस प्रकार घोषणा करने के बाद बहुत-से अनुभवी वैद्यादि विजयमित्र राजा के यहाँ आए। उन्होंने अपनी-अपनी बुद्धि से रोग का निदान किया और अपने मनोनीत विविध प्रयोगों द्वारा उक्त रोग को मिटाने का प्रयत्न किया, किन्तु वे सब इसमें विफल रहे। सभी वैद्यादि हार-थककर अपने-अपने गाँव को लौट गए। अंजूश्री को पापकर्म का दुःखद फल यहाँ भी मिला, आगे भी देवी-अंजूश्री योनिशूलजन्य असह्य पीड़ा से पीड़ित होकर दिनोंदिन सूखने लगी। उसका शरीर केवल अस्थिपंजर रह गया। वह इस अपार कष्ट के कारण करुण एवं दयनीय विलाप करती हुईं काल यापन करने लगी। .. अन्त में ९० वर्ष की परमायु भोगकर यथासमय काल करके अंजूश्री प्रथम नरक भूमि में नारक रूप से उत्पन्न हुई। अंजूश्री का भविष्य अधिकतर अन्धकारपूर्ण, अन्त में उज्ज्वल . उसके भविष्य के बारे में भगवान् ने बताया कि वह प्रथम नरक से निकलकर वनस्पतिकाय के अन्तर्गत नीम आदि कड़वे पेड़ों तथा आक आदि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी। वहाँ की भवस्थिति पूर्ण कर सर्वतोभद्र नगर में वह मयूर रूप में पैदा होगी। एक दिन मयूरव्याधों द्वारा मारे जाने से उसका जीव इसी नगर के श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहाँ बाल्यावस्था पार करके यौवन में पदार्पण करके तथारूप स्थविरों से बोधिलाभ (सम्यक्त्व) प्राप्त करेगा। तदनन्तर प्रव्रज्या लेकर मनुष्यभव का आयुष्य पूर्ण कर प्रथम देवलोक में और महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर चारित्र ग्रहण करेगा। यथावत् आराधना करके सिद्ध बुद्ध और सर्वकर्ममुक्त होगा, समस्त दुःखों का अन्त करेगा।' १. देखें, विपाकसूत्र श्रु.१ अ.१0 में वर्णित अंजूश्री के पूर्वभव, वर्तमान और भविष्य का वृत्तान्त, पृ. ११० से ११३ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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