Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 536
________________ ५१६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) श्रेष्ठिकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगी। इसी भव में उसका जीव सम्यक्त्व प्राप्त करेगा और मर कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से व्यवकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहाँ संयम ग्रहण करके यथार्थ आराधना करने से सर्वकर्मक्षय करके सिद्धबुद्ध-मुक्त होगा ।" निष्कर्ष इन वर्णनों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पापकर्मों का तीव्र बन्ध होने से बार कुगतियों और कुयोनियों में भटकना पड़ा है, जहाँ उस जीव को न तो सद्बोध मिला, न ही सम्यग्ज्ञान ! चारित्र तो मिलता ही कैसे ? लाखों बार जन्म-मरण के दुःखों की भट्टी में तपने के बाद शुभकर्मों का उदय हुआ तो महाविदेहक्षेत्र और मनुष्यजन्म मिला। और संयम ग्रहण करके सर्वोच्च मंजिल प्राप्त की । दसवाँ अध्ययन : अंजूश्री के पूर्वभव का वृत्तान्त इसके पश्चात् दुःखविपाक का अन्तिम (दसवाँ ) अध्ययन 'अंजू' का है। इसका पूर्वभव वेश्याकर्म के पापों से परिपूर्ण था । इन्द्रपुर के इन्द्रदत्त राजा के राज्य में पृथ्वीश्री नाम की एक गणिका (वेश्या) रहती थी। वह अनेक राजन्यों, अमात्यों, कोटवालों, सार्थवाहों आदि को वशीकरण सम्बन्धी चूर्णादि के प्रयोग से वशीभूत करके उनके साथ यथेच्छ कामभोगों का सेवन करती थी । वेश्याकर्म को बहुत ही प्रधानता देती थी, उसी को उत्तम आचार एवं दाक्षिण्य मानती थी। उक्त पापकर्मों का अत्यधिक बंध करके ३५०० वर्ष का आयुष्य भोगकर यथासमय काल करके छठी नऱकभूमि में पैदा हुई। जहाँ उसे प्रचण्ड वेदना सहनी पड़ी। वहाँ से निकलकर वर्धमानपुर में धनदेव सार्थवाह की पत्नी प्रियंगु की कुक्षि से कन्यारूप में उत्पन्न हुई। नाम रखा गया अंजूश्री । राजा विजयमित्र ने अपने लिए अंजूश्री की मांग की एक बार वर्धमानपुरनरेश विजयमित्र ने अश्वक्रीड़ा के लिए जाते हुए राजा वैश्रमणदत्त की भांति अंजूश्री को देखा और तेतलीपुत्र अमात्य की तरह अपने लिए उसके पिता से उसकी मांग की। उन्होंने उसकी मांग स्वीकार की। अपनी पुत्री का राजा विजयमित्र के साथ पाणिग्रहण किया । तदनन्तर वह अंजूश्री के साथ राजमहल में कामभोग-सुखों का आस्वादन करने लगा। १. देखें, सुखविपाक अ. ९ में देवदत्ता को स्वकृत पापकर्म का प्राप्त दुःखद फल एवं भविष्य का वृत्तान्त पृ. १०८, १०९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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