Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 534
________________ ५१४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) राजा वैश्रमण ने दोनों का विधिवत् विवाह सम्पन्न कराया राजा वैश्रमण ने भी पुष्यनन्दी और देवदत्ता को एक पट्टे पर दोनों को बिठाकर शुभ मुहूर्त में सभी स्वजनों के समक्ष धूमधाम से पाणिग्रहण कराया। दोनों का विवाह सम्पन्न होने के बाद वस्त्रालंकारादि से स्वजन-परिजनों को सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया। विवाह के बाद राजकुमार पुष्यनन्दी एवं देवदत्ता दोनों उत्तम प्रासाद में नृत्य-गीत-वाद्य से आमोद-प्रमोद करते हुए कामभोगसुखानुभव करने लगे। इसी बीच वैश्रमणदत्त का देहावसान हो गया। पुष्यनन्दी को राजगद्दी पर बिठाकर राजा घोषित किया गया। राजा पुष्यनन्दी की परम मातृभक्ति राजा पुष्यनन्दी परम मातृभक्त था। वह प्रतिदिन अपनी माता श्रीदेवी के चरणों में प्रणाम करता फिर उनके शरीर पर शतपाक-सहस्रपाक तेल से मालिश करवाता, फिर अस्थि, मांस, और त्वचा के लिये चार प्रकार की सुखदायिनी अंगमर्दनक्रिया (मालिश) करवाता। तत्पश्चात् उबटन करवाता और फिर ठंडे, गर्म और सुगन्धित जल से स्नान करवाता। तदनन्तर उन्हें विपुल अशनादि चार प्रकार का भोजन कराता। इस प्रकार माता श्रीदेवी के भोजन कर लेने के पश्चात् मुखशुद्धि करके सुखासन पर बैठ जाने के बाद ही पुष्यनन्दी स्नान-भोजनादि करता था। फिर मानवीय सुखद कामभोगों का उपभोग करता था। यह मातृभक्ति देवदत्ता को अपने विषयभोगों में बाधक लगी अतः श्रीदेवी को मारने का दुर्विचार पुष्यनन्दी की इस प्रकार की मातृभक्ति को अपने पर्याप्त मानवीय कामभोगसुखोपभोग में विघ्नकारिणी समझकर देवदत्ता ने एक दिन अर्धरात्रि के समय मन में विचार किया-इनकी माता श्रीदेवी को अग्नि, शस्त्र, विष या मन्त्र के प्रयोग से किसी तरह मारकर फिर पुष्यनन्दी के साथ यथेष्ट विषयभोगों का सेवन कर सकूँगी। यों सोचकर वह श्रीदेवी (सास) को मारने के लिए अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। देवदत्ता ने श्रीदेवी को मारकर ही दम लिया एक दिन स्नानादि से निवृत्त होकर श्रीदेवी एकान्त में अपनी शय्या पर सुखपूर्वक सो रही थी, यह मौका उचित समझकर देवदत्ता श्रीदेवी के कक्ष में आई। श्रीदेवी को १. देखें, दुःखविपाक अ. ९ में देवदत्ता के वर्तमान भव का वृत्तान्त, पृ. १०३ से १०७ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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