Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 515
________________ ४९४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) मृगापुत्र का पूर्वभवः पापकर्मलीन इक्काई राठौड़ इसके प्रथम अध्ययन का नाम मृगापुत्र है। मृगापुत्र अपने दो जन्मों के पूर्व शतद्वारनरेश का प्रतिनिधि तथा विजयवर्धमान नामक खेट (खेड़ा) का शासक इक्काई . राठौड़ था। वह अत्यन्त पापी, अधर्मी, पापकर्म प्रेरक, अधर्मनिष्ठ, अधर्मानुयायी, अधर्मदर्शी, अधर्मोत्तेजक एवं अधर्माचारी था। वह प्रत्येक दृष्टि से भ्रष्टाचारी और अधम शासक था। प्रजा का अधिक से अधिक शोषण, उत्पीड़न करने और उससे अधिकाधिक कर वसूलने, धन बटोरने, निरपराध प्रजाजनों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें तंग करने में अपनी शान समझता था । वह व्याजखाऊ और चोरी-लूट आदि करवा कर धन-संग्रह करने में तत्पर रहता था । अहर्निश पापकर्मों में ही वह तल्लीन रहता था। पापकर्मों का तात्कालिक फल : सोलह असाध्य रोगों की उत्पत्ति, बाद में नरकगति इन पापकर्मों का उसे तात्कालिक फल यह मिला कि उसी जन्म में उसके शरीर में एक साथ १६ कष्टकर असाध्य एवं भयंकर रोग उत्पन्न हुए। बहुत-से चिकित्सकों और वैद्यों से उसने औषधोपचार करवाया। परन्तु कोई भी चिकित्सक उसके एक भी रोग को मिटा नहीं सका। इन रोगों की पीड़ा के कारण वह हाय-हाय करता हुआ कुमौत मरा। मरकर अपने पापकर्मों का फल भोगने के लिए प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुआ। मृगापुत्र के भव में भी गर्भ में आने से लेकर मृत्यु तक असह्य व्याधि, पीड़ा और ग्लानि का दुःख भोगा · सुदीर्घकाल तक अपार दुःख और यातनाएँ भोगने के पश्चात् वह मृगाग्राम के नरेश विजयक्षत्रिय के पुत्र के रूप में जन्मा । नाम रखा गया था - मृगापुत्र । जब से वह अपनी माता मृगारानी के गर्भ में आया, तभी से रानी के शरीर में असह्य पीड़ा होने लगी। (ग) विविधो नानाविधो वा पाको विपाकः । पूर्वोक्त कषाय-तीव्रमन्दादि भावानवविशेषाद्विशिष्टः पाको विपाकः, अथवा द्रव्य-क्षेत्र काल-भव-भावलक्षण-निमित्त भेदजनित- वैश्वरूप्यो नानाविधः पाको विपाकः । - सर्वार्थसिद्धिं ८/२१/३९८/३ (घ) विपाकः पुण्य-पापरूपकर्म-फलं तप्रतिपादनपरं श्रुतमागमो विपाकश्रुतम् । विपाकसूत्र - अभयदेव वृत्ति । (ङ) विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाक श्रुतं । - नन्दी, हारिभद्रीयावृत्ति पृ. १०५ अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई' अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे । (च) समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि Jain Education International For Personal & Private Use Only - समवायांग समवाय ५५. www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560