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कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५०९
इस प्रकार वह मत्स्यमांसों, मृगमांसों, तथा तित्तिरमांसों के रूपों को यावत् मयूर मांसों के रसों को एवं अन्य बहुत से हरे सागों को तैयार करता था । फिर वह राजा मित्र के भोजनमण्डप में ले जाकर भोजन के समय उसे परोसता था । श्रीद रसोइया स्वयं भी अनेक जलचर, स्थलचर एवं खेचर जीवों के मांसों, रसों तथा हरे सागों के साथ, जो कि हुए, भुने हुए तथा शूलपक्व होते थे, छह प्रकार की सुरा आदि के साथ आस्वादनविस्वादन आदि करता हुआ काल-यापन करता था ।
इन पापकर्मों का दुःखद फल : छठी नरक भूमि में जन्म
इन्हीं पापकर्मों को करने में रचा-पचा, तथा इन्हीं कर्मों में पारंगत एवं उन्हीं कर्मों को प्रधानता देने वाला श्रीद रसोइया अत्यधिक पापकर्मों का बन्ध करके ३३०० वर्ष की परम आयु भोगकर छठी नरकभूमि में उत्पन्न हुआ।'
मच्छीमार समुद्रदत्त के पुत्र के रूप में जन्म, यौवन में पितृवियोग
वहाँ से निकलकर श्री रसोइये का जीव शौरिकपुर के बाहर ईशानकोण में स्थित मच्छीमारों के पाड़े (मोहल्ले) के निवासी महाअधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द समुद्रदत्त की पत्नी समुद्रदत्ता के गर्भ में आया। समुद्रदत्ता मृतवत्सा थी, इसलिए शौरिकयक्ष की मनौती की। फलत: द्रोहद उत्पन्न हुआ । उसकी पूर्ति करने के बाद पुत्र को जन्म दिया। नाम रखा गया शौरिकदत्त । बाल्यावस्था पार करके शौरिकदत्त ने यौवन में पदार्पण किया। दुर्भाग्य से एक दिन अकस्मात् उसके पिता का वियोग हो गया। उसके पश्चात् वह स्वयं मच्छीमारों का मुखिया बन गया।
शौरिकदत्त विविध मत्स्यों के मांस का व्यापारी बना
महापापी एवं क्रूर शौरिकदत्त मच्छीमार ने अपने कार्य के लिए अनेक वेतनभोगी नौकर रखे, जो छोटी नौकाओं द्वारा यमुना नदी में प्रवेश करते और घूमते फिर उसमें से निकलने वाले जलाशयों (झील या हद) में मछली आदि जल जन्तुओं को पकड़ने के लिए भ्रमण करते, सरोवरों में से जल को निकालते, कभी थूहर आदि का दूध डालकर जल hit दूषित करते तथा जल का विलोड़न करते, जिससे मछली आदि जीव स्थान -भ्रष्ट एवं भयभीत हो जाते और आसानी से पकड़े जा सकते थे। कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक मत्स्यविशेषों को प्रपंचुल, प्रपंपुल, मत्स्यपुच्छ, जृम्भा, त्रिसरा, भिसरा, विसरा, द्विसरा, हिल्लरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूटपाश, वल्कबन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध इत्यादि मत्स्य आदि जीवों को पकड़ने के साधन विशेषों से पकड़ते और उन्हें
१. देखें, विपाक सूत्र श्रु. १ अ. ८ में शौरिकदत्त के पूर्वभव का पापपूर्ण जीवन वृत्तान्त पृ. ९१ से ९२ तक
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