Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 527
________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५०७ पापकर्म के फलस्वरूप छठी नरक में इस प्रकार धन्वन्तरी वैद्य इन्हीं पाप कर्मों को अपने जीवन का आचरण, , विद्या और अंग मान कर उपार्जित करके ३२०० वर्ष की परम आयु को भोगकर यहाँ से काल करके उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाली छठी नरकभूमि में नारकरूप से उत्पन्न हुआ। उम्बरदत्त की मां को मद्यपान के साथ भोजन करने का दोहद उत्पन्न हुआ वहाँ से निकलकर धन्वन्तरी वैद्य का जीव पाटलिखण्ड नगर के सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी गंगदत्ता की कुक्षि में पुत्ररूप में गर्भ में आया। लगभग तीन महीने के बाद एक विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ कि "अनेक महिलाओं के साथ मैं पुष्करिणी में स्नान करूं, फिर मंगल कार्य सम्पन्न करके उन महिलाओं के साथ विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम तथा सुरा आदि मदिराओं के पान का आस्वादन - विस्वादन आदि करूँ ।" किसी दिन सागरदत्त सार्थवाह से आज्ञा लेकर गंगदत्ता ने पूर्वोक्त प्रकार से अपना दोहद पूर्ण किया और वापस घर लौटी। उम्बरदत्त के मां-बाप मरने से उसे घर से निकाल दिया गया नौ मास परिपूर्ण होने पर गंगदत्ता ने एक पुत्र को जन्म दिया। चूंकि यह बालक उम्बरदत्त यक्ष की मान्यता से हुआ था, इसलिए इसका नाम भी 'उम्बरदत्त' रखा गया। मगर दुर्भाग्य से पूर्वोपार्जित पापकर्मवश उम्बरदत्त के पिता और माता का बचपन में ही वियोग हो गया। उम्बरदत्त को राजपुरुषों ने उज्झितकुमार की तरह घर से निकाल दिया और वह घर किसी अन्य को सौंप दिया। उम्बरदत्त के शरीर में भयंकर १६ असाध्य रोगों की उत्पत्ति फिर पूर्वजन्म में उपार्जित घोर पापकर्मों के फल के रूप में उम्बरदत्त के शरीर में कास, श्वास, कोढ़ आदि सोलह प्रकार के असाध्य रोग उत्पन्न हुए। इन रोगों के दुष्प्रभाव से उसके सारे शरीर में खुजली हो गई थी, हाथ, पैर और मुँह सूज गए थे। बबासीर और भगंदर रोग भी लग गए थे। हाथ-पैर की अंगुलियां सड़ गई थीं, नाक और कान भी गल गए थे। गलित कुष्ठ रोग के कारण घावों तथा फोड़ों से रक्त और पीव झर रहा था। वह बार-बार रक्त, पीव और कीड़ों के कौरों को थूकता एवं वमन करता था। बार-बार इस कष्ट, पीड़ा और दुःख से कराहता था। उसके पीछे मक्खियों के झुंड के झुंड मंडराते थे। वह अत्यन्त फटेहाल, थिगली वाले चिथड़े तथा बिखरे हुए अस्त-व्यस्त बाल लिए तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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