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५०२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
बालक को पकड़वाता और जीतेजी उनके हृदय से मांसपिण्ड निकलवाता, फिर राजा के निमित्त उनका शान्तिहोम किया करता था । अष्टमी और चतुर्दशी के दिन दो-दो बालकों के, चार-चार मास में चार-चार बालकों के तथा प्रति छह-छह मास में आठ-आठ बालकों के, तथा प्रतिवर्ष सोलह-सोलह बालकों के हृदयों के मांसपिण्डों को निकलवाता, और उनसे शान्तिहोम किया करता था।
जब-जब जितशत्रु राजा का' किसी शत्रु राजा के साथ युद्ध होता, तब महेश्वरदत्त पुरोहित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के १०८ १०८ बालकों को पकड़वाता और उनके कलेजों का मांसपिण्ड निकलवाकर जितशत्रु राजा की विजय के निमित्त शान्तिहोम करता था। उसके प्रभाव से जितशत्रु राजा शीघ्र ही शत्रु का विध्वंस कर देता या उसे भगा देता था। इस प्रकार के क्रूर कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, क्रूर कर्मों में प्रधान, विविध पापकर्मों को संचित कर ३ हजार वर्ष का परम आयुष्य भोगकर पांचवें नरक में उत्कृष्ट १७ सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुआ। बृहस्पतिदत्त को परस्त्रीगामिता का कटुफल मिला
तदनन्तर महेश्वरदत्त पुरोहित का वह पापिष्ठ जीव पंचम नरक से निकल कर कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता भार्या की कुक्षि से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् पुत्र का नाम रखा गया - बृहस्पतिदत्त । कौशाम्बी के राजा शतानीक का पुत्र उदयनकुमार उसका हमजोली मित्र था । ये दोनों एक ही समय में जन्मे, एक साथ बढ़े और बाल्यक्रीड़ा भी साथ-साथ करते थे।
उदयन के अन्तःपुर में बेरोकटोक प्रवेश तथा पद्मावती देवी के साथ अनुचित
सम्बन्ध
शतानीक राजा के देहावसान के पश्चात् सभी राज्याधिकारियों ने मिलकर उदयनकुमार का राज्याभिषेक किया। राजा बनने पर उदयन नरेश ने बृहस्पतिदत्त को अपना पुरोहित बनाया। अतः बृहस्पतिदत्त पौरोहित्य कर्म करता हुआ सभी स्थानों, सभी भूमिकाओं में तथा अन्तःपुर में भी स्वच्छन्दतापूर्वक बेरोकटोक आवागमन करने लगा।
अब तो उसका इतना हौंसला बढ़ गया कि वह उदयननरेश के अन्तःपुर में समय-असमय, काल-अकाल, तथा रात्रिकाल और सन्ध्याकाल में स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवेश करने लगा और धीरे-धीरे पद्मावती देवी के साथ अनुचित सम्बन्ध कर लिया। अब तो पद्मावती देवी के साथ वह बेरोकटोक मनुष्य सम्बन्धी मनचाहे कामभोग सेवन करता हुआ समय-यापन करने लगा।
१. देखें, वही. श्रु. १ अ. ५ में बृहस्पतिदत्त का पूर्वभव का वृत्तान्त, पृ. ६६
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