Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 506
________________ ४८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) संक्षेप में वे अपने व्रत, नियम, तपश्चरण, मर्यादा, आदि से आत्मा को भावित करते हुए जीवन यापन करते हैं। वे अपने श्रावक व्रतों का निरतिचार रूप से पालन करते हुए रोगादि कोई बाधा उत्पन्न होने या अन्य कोई मारणान्तिक उपसर्ग या कष्ट आने पर बहुत दिनों का भक्त प्रत्याख्यान करते हैं। अनशन-संथारा धारण करके पूर्वकृत पाप-दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके निदान रहित होकर समाधि पूर्वक देहत्याग करते हैं। यहाँ से देहान्त होने पर वे किन्हीं विशिष्ट देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ वे महान ऋद्धि, द्युति, यश, बल, एवं सुख आदि से सम्पन्न होते हैं। यह तृतीय मिश्रस्थान आर्य, आर्यसेवित एकान्त सम्यक् और उत्तम है।' इस प्रकार एकान्त पापकर्म, विशिष्ट पुण्यकर्म तथा धर्म, एवं अधिकांश पुण्य तथा किंचित् पापकर्म के फल सम्बन्धी वर्णन से स्पष्ट है कि कृत पुण्य-पापकर्म व्यर्थ नहीं जाता। पृथ्वीकायिक से लेकर वैमानिक देवों तक का आहार, उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि : कर्मों के कारण सूत्रकृतांगसूत्र के आहार परिज्ञा अध्ययन में बताया गया है कि पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय (जलचर, स्थलचर, खेचर, उरःपरिसर्प, भुजपरिसर्प) मनुष्य, नारक एवं देव आदि समस्त प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व पूर्वकृत कर्मोदय के फलस्वरूप नाना प्रकार की गतियों योनियों में उत्पन्न होते हैं। एक ही योनि के जीव उसी योनि में दूसरे रूप में उत्पन्न होते हैं। वे अपने किये हुए कर्म के प्रभाव से ही गति, योनि और स्थिति पाते हैं। वहीं वे रहते हैं, वहीं वृद्धि पाते हैं। वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं तथा शरीर में ही बढ़ते हैं एवं शरीर से ही आहार करते हैं। वे अपने-अपने कर्म का ही अनुसरण करते हैं। कर्म ही उस-उस योनि में उनकी उत्पत्ति का प्रधान निमित्त कारण है। कर्म के ही फलस्वरूप वे सदैव भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए जन्म, जरा, मरण, रोग, संकट आदि दुःखों के भागी होते समस्त संसारी प्राणियों को प्राप्त होने वाले जन्म-जरा-मरणादिरूप फल इस समग्र पाठ से स्पष्ट है कि विविध कर्मों के विभिन्न गतियों, योनियों, स्थितियों तथा उन्हीं में पुनःपुनः उत्पत्ति एवं वृद्धि के रूप में तथा उनमें प्राप्त होने वाले जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, संकट आदि दुःखों के रूप में फल अवश्य प्राप्त होता है। १. वही, श्रु. २, अ. २, सू. ७१५, पृ. ९७ से ९९ तक (आ. प्र. समिति, ब्यावर) २. देखें-सूत्रकृतांग श्रु. २, अ. ३, सू. ७२२ से ७४६ तक का सारभूत अंश, विवेचन, पृ. १०८ से १३० तक (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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