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पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४८३ शौवान्तिक (शिकारी कुत्तों द्वारा पशुओं का शिकार करने वाला) इत्यादि बनकर विविध रूप में हिंसादि महापाप कर्म करता है। इसके अतिरिक्त जो बात-बात में आवेश में
आकर किसी भी मनुष्य या जीव को कत्ल कर देता है, जो जरा-सी बात में अत्यन्त क्रुद्ध होकर तोड़फोड़ कर देता है, आग लगा देता है, दंगा-फसाद कर देता है, कोई बात-बात में असहिष्णु बनकर अपना स्वार्थ भंग होने पर सामने वाले व्यक्ति के बालकों या पशुओं के अंगोपांग काट डालता है, कोई अन्य किसी भी अपमानादि के कारण बदला लेने को या जान से मार डालने को उद्यत हो जाता है, ये और इस प्रकार के अनेक-विध महापाप कर्म करने वाले अधर्मपक्षीय अधिकारी हैं।
इनके व्यवसाय पापमय होते हैं, इसके आचार-विचार और व्यवहार पापमय होते हैं। ये मारण, मोहन, उच्चाटन आदि सावद्यविद्याएँ अपनाते हैं। उनकी चर्या अहर्निश विषयभोग-लालसामयी रहती है। ऐसे अधर्म पक्ष के अधिकारी तीन कोटि के व्यक्ति होते हैं-(१) भोग विलासमय जीवन यापन करने हेतु तरसने वाले तृष्णान्ध या विषय-सुखभोगान्ध व्यक्ति, (२) भोगग्रस्त अधर्म को पाने के लिए तरसने वाले विषय सुखलोलुप गृहस्थ, और (३) प्रव्रजित होकर विषय-सुख साधनों को पाने के लिए अहर्निश लालायित।' अधर्मपक्षीय जनों के विषय में अनार्यों एवं आर्यों का अभिप्राय
- ऐसे पापमय प्रवृत्ति वाले अधर्मपक्षीय लोगों को अनार्य लोग आश्रितों का पालक, तथा उनकी भोगविलासमय जिंदगी देखकर देवतुल्य या देव से भी श्रेष्ठ आदि बताते हैं। मगर आर्य लोग उनकी वर्तमान विषयसुखलोलुपता, भोगसुख-मग्नता के पीछे हिंसा, झूठ, फरेब, शोषण, चोरी, छल, ठगी आदि महान् पापों का परिणाम देखकर उन्हें क्रूरकर्मा, शोषक, उत्पीड़क, धूर्त, विषयभोगों के कीड़े, शरीरपोषक आदि बताते हैं। अधर्मपक्षीय स्थान : क्या, कैसा और उसके पापकर्मों का इहलौकिक पारलौकिक फल
.. यह स्थान अनार्य है, आर्य पुरुषों द्वारा अनाचरणीय है, अपूर्ण है, न्यायवृत्ति से रहित है, पवित्रता से रहित है, दुःखनाशक मार्ग नहीं है, एकान्त मिथ्या एवं बुरा है आदि। सूत्रकृतांग में इसका विश्लेषण बहुत ही विस्तार से दिया गया है। इन पापकर्मियों अनार्यों के कर्मफल के विषय में कहा गया है कि ये पापकर्मों के भार से दबे हुए, अत्यन्त क्रूर, अत्यधिक पापकर्मों से युक्त, पूर्वकृत कर्मों से अत्यन्त भारी, कर्मपंक से अतिमलिन,
१. देखें, सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. २, सू. ७०८ से ७१0 तक अनुवाद, विवेचन का सारभूत अंश, - पृ. ७९ से ८३ तक
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