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४५४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
इस भंग का लक्षण है-पापमयी परिस्थिति में रहकर भी पुण्योपार्जन कर लेना और अपने भविष्य को उज्ज्वल बना लेना। इस भंग में हम नन्दन-मणियार के जीव मेंढक का उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं। जिसने तिर्यंचभव की पापमयी दःखद स्थिति में भी शुभ भावों से श्रावकधर्म की आराधना करके देवगति प्राप्त कर ली। भविष्य में वह सर्वकर्ममुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा। इस विकल्प में हम कुष्ट रोगग्रस्त श्रीपाल का उदाहरण भी समझ सकते हैं, जिसे हम अगले पृष्ठों में अंकित कर रहे हैं।'
आज संसार में एक दुरात्मा, क्रूर एवं हिंसक व्यक्ति सुखी दीख पड़ता है और दूसरा सज्जन, धर्मात्मा, दयालु एवं अहिंसापरायण व्यक्ति पुरुष दुःखित, निर्धन एवं अभावपीड़ित देखा जाता है; इस पर से स्थूलदृष्टि वाले लोग कर्मविज्ञान के प्रति अनास्था प्रकट करने लगते हैं; परन्तु जैन संस्कृति के मर्मज्ञ मनीषी आचार्यों ने इस गुत्थी को बड़े सुन्दर ढंग से सुलझाया है।
उनका कथन है-हिंसापरायण व्यक्ति की समृद्धि और भगवान् की पूजा-भक्ति करने वाले भक्त साधक की दरिद्रता क्रमशः पापानुबन्धी पुण्य और पुण्यानुबन्धी पापकर्म के कारण है। इन दोनों कोटि के व्यक्तियों की क्रमशः हिंसा और पूजाभक्ति निष्फल नहीं हो सकती। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म या जन्मों में उसका फल क्रमश: पाप और पुण्य के रूप में अवश्य ही मिलेगा। अतः कर्म और कर्मफल में कार्य-कारण का व्यभिचार नहीं हो सकता।
मूल बात यह है कि जो व्यक्ति पूर्वजन्मकृत पुण्य के फलस्वरूप वर्तमान में सुख-सम्पन्नता प्राप्त किये हुए है, वह इस पुण्य-पाप के खेल में बाजी जीतने के बजाय हारता जा रहा है, अपना भविष्य अन्धकारमय बना रहा है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति को वर्तमान में सुखसम्पन्नता प्राप्त नहीं है, जो पूर्वजन्म में पुण्य-पाप के खेल में बाजी हार गया था, किन्तु वर्तमान में कुशल खिलाड़ी बनकर धैर्य, सहिष्णुता और समभाव से जीवन-यापन कर रहा है। फलतः बाजी जीतता जा रहा है। निष्काम पूण्य का उपार्जन कर रहा है, वह गुदड़ी का लाल पुण्यानुबन्धी पाप का अधिकारी है। अपने भविष्य को वह उज्ज्वल-समुज्ज्वल बनाता जा रहा है।
१. (क) जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'पुण्य-पाप की अवधारणा' लेख से (ख) देखें, ज्ञातासूत्र में नन्दनमणियार का जीवन वृत्तान्त, ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर
- पृ. ४३० २. या हिंसावतोऽपि समृद्धिः अर्हत्पूजावतोऽपि दारिद्र्यावाप्तिः, सा क्रमेण प्रागुपात्तस्य पापानुबन्धिनः
पुण्यस्य, पुण्यानुबन्धिनः पापस्य च फलम्। तक्रियोपात्तं तु कर्म जन्मान्तरे फलिष्यति, इति नात्र नियत-कार्य-कारणभाव-व्यभिचारः ।"
-जैनाचार्य
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