________________
पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४७७
कामभोगों में आसक्त लोगों को उनके कटुफल की चेतावनी देते हुए शास्त्रकार कहते हैं- "हे साधको ! विविध कामभोगों (विषय भोगों) में आसक्त जीवों को देखो; जो नरक तिर्यञ्च आदि यातना स्थानों में पच रहे हैं (उन्हीं विषयों में खींचे जा रहे हैं)। (वे इन्द्रिय-विषयों के वशीभूत प्राणी) इस संसार-प्रवाह में (कर्मों के फलस्वरूप) उन्हीं स्थानों का बार-बार स्पर्श करते हैं, (उन्हीं स्थानों में बार-बार जन्म-मरण करते हैं।) गुरुकर्मा व्यक्तियों की करुणदशा का निरूपण
गुरुकर्मा व्यक्तियों की करुणदशा का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
" कई गुरुकर्मा लोग विविध (दरिद्र, सम्पन्न, मध्यवित्त आदि) कुलों में जन्म लेते हैं। (धर्माचरण के योग्य भी होते हैं), किन्तु रूप-रसादि विषयों में आसक्त होकर अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक दुःखों, संकटों एवं उपद्रवों से तथा भयंकर रोगों से आक्रान्त (ग्रस्त) होने पर करुण विलाप करते हैं; (लेकिन वे विषयासक्ति को नहीं छोड़ते अथवा दुःखों के आवासरूप गृहवास को नहीं छोड़ते, या विषयासक्ति पर संयम नहीं करते) ऐसे व्यक्ति दुःखों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते।'' स्वयंकृत दुःखद पापकर्मों का कटुफल
स्वयंकृत दुःखों-दुःखद कर्म फलभोगों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं"अपने ही द्वारा पूर्वकृत कर्म के उदय में आने पर (अपने-अपने कृतकों के) फलों को भोगने के लिए वे (मोहमूढ़ मानव) उन (विविध) कुलों में (जन्म लेकर) निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैं-(१) गण्डमाला (२) कोढ़ (३) राजयक्ष्मा, (४) अपस्मार (मृगी), (५) काणत्व, (६) जड़ता (अंगोपांगों में शून्यता), (७) कुणित्व (टूटापना), (८) कुबड़ापन, (९) उदररोग (जलोदर, अफारा, उदरशूल आदि), (१०) मूक रोग (गूगापन),(९११) शोथरोग (सूजन) (१२) भस्मक रोग, (१३) कम्पवात, (१४) पीठसी पंगुता, (१५) श्लीपर रोग (हाथीपगा) और (१६) मधुमेह।"३ शरीर सुख तथा रोगोपचार के लिए नाना प्राणियों के वध का फल
आचारांग सूत्र में बताया गया है कि अनेक रोगों से पीड़ित मानव उन रोगों के उपचार के लिए अनेक प्राणियों का वध करता-कराता है। उनके रक्त, मांस, कलेजे, हड्डी आदि का अपनी शारीररिक चिकित्सा के लिए वह उपयोग करता-कराता है। १. वही, श्रु.१, अ.५ उ.१, सू.१४८-१४९ अनुवाद और विवेचन (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर)
पृ.१४७-१४९ २. वही, श्रु.१, अ.६, उ.१,सू.१७८ अनुवाद और विवेचन (आ. प्र. समिति, ब्यावर) प.१९४ ३. वही, श्रु.१, अ.६ उ.१ सू.१७९ अनुवाद और विवेचन (आ.प्र. समिति, ब्यावर)
पृ.१९५-१९६ .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org