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पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में ४५५
(४) पापानुबन्धी पाप - यह चतुर्थ भंग (विकल्प) है। इस भंग के अधिकारी वे हैं, जो पूर्वजन्म में भी पुण्य-पाप के खेल में बाजी हार गये थे, वर्तमान में भी पूर्वकृत किंचित् पुण्यराशि के फलस्वरूप मनुष्यजन्म, स्वस्थ शरीर, पांचों इन्द्रियाँ, दीर्घायुष्य मिला, फिर भी वे अकुशल खिलाड़ी बनकर बाजी हारते जा रहे है; अपना भविष्य अन्धकारमय बना रहे हैं। ऐसे जीव पूर्वकृत पापकर्म के फलस्वरूप वर्तमान में भी दुःख पाते हैं और भविष्य के लिए भी पापकर्म का संचय करके दुःख के बीज बोते हैं; ऐसे जीव इस विकल्प में आते हैं। अर्थात्-जो पूर्वकृत पापकर्म वर्तमान में दुःख देता है और पापानुबन्धी होने से भविष्य में भी जिससे दुःखरूप फल प्राप्त होता है।
जैसे- धीवर आदि मच्छीमार, कसाई, वेश्या आदि का पापकर्म । तन्दुलमत्स्य भी इस भंग का उदाहरण है। जो पूर्वकृत पापकर्म के फलस्वरूप अल्पायु होकर पापमय अशुभ भावों से सप्तम नरक का बन्ध कर लेता है। सिंह, सर्प, व्याघ्र आदि हिंसक क्रूर प्राणी भी इसी पापानुबन्धी पाप की कोटि में आते हैं।'
स्कन्दपुराण तथा मार्कण्डेय पुराण में भी पुण्य-पाप से सम्बन्धित चौभंगी बताई गई है। वह इस प्रकार है-“(१) एक व्यक्ति को केवल इसी लोक में सुख है, परलोक में नहीं, (२) एक व्यक्ति यहाँ दुःखी है, किन्तु परलोक में सुखी रहेगा। (३) एक व्यक्ति ऐसा है, जो यहाँ तथा वहाँ या अन्यत्र भी सुखी नहीं है, दुःखी ही रहेगा। (४) और एक व्यक्ति ऐसा है, जो वर्तमान और भविष्य में, तथा परलोक में एवं पुनर्जन्म में भी सर्वत्र सुखी रहेगा।"
इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) पहला भंग - जिसने पूर्वजन्म में पुण्योपार्जन किया है, किन्तु आज पुण्योपार्जन नहीं कर रहा है, वह यहीं सुखी दिखाई देगा। उसके लिए परलोक तथा पुनर्जन्म में कष्ट ही कष्ट है।
(२) दूसरा भंग - जिसका पूर्वकृत पुण्य नहीं है, परन्तु आज वह तपस्या कर रहा है, यह (तुम्हारे जैसा) यहाँ कष्ट पाता हुआ भी आगे सुखी रहेगा।
(३) तीसरा भंग - जिसने पहले और आज भी किसी पुण्य का अनुष्ठान नहीं किया, उसे आज और आगे भी कष्ट पाना है। ऐसा नराधम धिक्कार का पात्र है।
(४) चौथा भंग - किन्तु जिसने पहले भी पुण्योपार्जन किया, आज भी पुण्य कर रहा है, वह श्रेष्ठ पुरुष धन्य है, जो आज भी और आगे भी सुखी रहेगा।
१.
(क) 'पुण्य-पाप की अवधारणा' - जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित लेख से (ख) देखें - तंदुलवयालिय प्रकरण
२. इहैवेकस्य नाऽमुत्र अमुत्रनैकस्य नो इह ।
इह चामुत्र चैकस्य नामुत्रैकस्य नो इह ॥ ९७ ॥
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