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४७0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
कल्पों (देवलोको) में (अपनी-अपनी व्रताराधना के अनुरूप) यथास्थान (अपनी काल मर्यादा) तक ठहर कर आयु क्षय होते ही वहाँ से च्यवन कर मनुष्य योनि पाते हैं। जहाँ वे दशांग-भोग सामग्री से युक्त स्थान में जन्म लेते हैं-क्षेत्र (खेत या खुली जमीन), वास्तु (गृह प्रासाद आदि), स्वर्ण, पशुसमूह, दास-पोष्य वर्ग -ये चार कामस्कन्ध जहाँ होते हैं, वहाँ वे उत्पन्न होते हैं। साथ ही वे सन्मित्रों से युक्त, ज्ञातिमान, उच्चगोत्रीय, सुरूप, नीरोग (स्वस्थ), महाप्रज्ञ, अभिजात (कुलीन), यशस्वी और बलवान् होते हैं। ये सबके सब पूर्वकृत पुण्यकर्म के फल हैं।' पापकर्मों से धनोपार्जन का कुफल
पापकर्मों से धन का उपार्जन करने वालों को उनके फल की चेतावनी देते हुए कहा गया है-"जो मनुष्य कुबुद्धि का सहारा लेकर पापकर्मों (हिंसा, चोरी, ठगी, डकैती, बेईमानी, अनीति, व्यभिचार एवं वेश्याकर्म, द्यूतकर्म, कसाई कर्म आदि) से धन कमाते हैं; उस पापोपार्जित धन को यहीं छोड़कर वे मानव रागद्वेष के पाश (जाल) में फंसकर तथा अनेक जीवों से वैर बांधकर (मरकर) नरक में जाते हैं।" जैसे सेंध लगाते हुए संधि-मुख में पकड़ा गया पापकारी चोर स्वयं द्वारा किये गए कर्म से ही छेदा जाता (दण्डित होता) है, वैसे ही इहलोक और परलोक में प्राणी स्वकृत कर्मों के कारण छेदा जाता (दण्डित होता) है। क्योंकि कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। .
विसालिसेहिं सीलेहि जखा उत्तर-उत्तरा।। महासुक्का व दिपंता, मन्नंता अपुणच्चयं ॥१४॥ अप्पिया देवकामाणं कामरूव-विउव्विणो। उड्ढ कप्पेसु चिटुंति, पुव्वा वाससया बहू ॥१५॥ तत्थ ठिच्चा जहा ठाणं, जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायइ॥१६॥ खेत्तं वत्थु हिरण्णं च, पसवो दास-पोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जइ ॥१७॥ मित्तवं नायवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं। अप्पायक महापत्रे अभिजाए जसो बले ॥१८॥ -उत्तराध्ययन, अ. ३ गा. १४ से १८ जे पावकम्मेहिं धणं मणुस्सा, समाययंती अमइं गहाय । पहाय ते पास पयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा णरयं उति ।।२।। तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया! पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि ॥३॥
-उत्तराध्ययन आ.४ गा. २-३
२.
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