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पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४६९
विनय पूर्वक श्रुताराधना करने वाले साधकों के द्वारा विनय का सुफल बताते हुए कहा गया है-वह सुविनीत साधक देवों, गन्धर्वो और मनुष्यों द्वारा पूजित होकर कर्मयुक्त देह को छोड़ता है, तो या तो अल्पकर्म रज वाला महर्द्धिक देव होता है, या फिर शाश्वत सर्व कर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध हो जाता है।' पुण्य-पाप कर्मों से कलुषित मानवों को, उनके कर्मों का सुफल-दुष्फल
पुण्य-पाप कर्मों से कलुषित मनुष्य की कुफलयुक्त दशा का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-जिस प्रकार क्षत्रिय लोग सभी अर्थों (कामभोगों, विषयसुख साधनों, अथवा वैभव-ऐश्वर्य) का उपभोग करते हुए भी विरक्ति को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार शुभाशुभकर्मों से कलुषित जीव अनादिकाल से आवर्तस्वरूप योनिचक्र में भ्रमण करते हुए संसार दशा से वैराग्य (निर्वेद) नहीं पाते। अर्थात् जन्म-मरण के भंवर जाल से मुक्त होने की इच्छा नहीं होती। कर्मों के संग से सम्मूढ़, दुःखित, और अत्यन्त वेदनायुक्त जीव मनुष्येतर योनियों में पुनः-पुनः विनिघात (त्रास) पाते हैं। विविध शुद्ध शील पालन रूप पुण्य कर्म के सुफल
विविध शील (व्रत, नियम एवं आचार) के पालन आदि का सुफल बताते हुए उत्तराध्ययन में कहा गया है-विविध शीलों (व्रत, आचारों) के पालन से यक्ष (महर्द्धि क देव) होते हैं। वे उत्तरोत्तर (स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति एवं लेश्या की अधिकाधिक) समृद्धि के द्वारा महाशुक्ल (चन्द्र-सूर्य) की भाँति दीप्तिमान होते हैं और वे ऐसा मानने लगते हैं कि स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता। (एक प्रकार से) दिव्य कामभोगों के लिये स्वयं को अर्पित वे देव इच्छानुसार रूप बनाने (विकुर्वणा करने) में समर्थ होते हैं और ऊर्ध्वकल्पों (ऊपर के देवलोकों) में पूर्ववर्षशत (सुदीर्घकाल) तक रहते हैं। वे देव उन
तहेव अविणीयप्पा लोगसि नरनारीओ। दीसंति दुहमेहंता.छाया ते विगलेंदिया ७॥ दंड-सत्थ-परिजुण्णा असब्भवयणेहि य । कलुणा विवन्न छंदा खुप्पिवासाए परिगया ॥८॥ तहेव अविणीयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति दुहमेहंता आभिओगमुवट्ठिआ॥१०॥ स देव-गंधव्व-मणुस्स-पूइए चइत्तु देहं मल-पंक पुव्वयं। सिद्धे वा हवइ सासए देवे वा अप्परए महिड्ढिए॥ -उत्तराध्ययन अ. १, गा. ४८ एवमावट्ट जोणीसु पाणिणो कम्मकिब्बिस्सा। न निविज्जति संसारे सव्वढेसु व खत्तिया। कम्मसंगेहिं संमूढा दुक्खिया बहुवेयणा। अमाणुसासु जोणीसु विणिहम्मति पाणिणो॥
-उत्तराध्ययन अ. ३ गा. ५-६.
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