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४६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
कर्ममुक्ति' के प्रकरण में अंकित करेंगे। यहाँ प्रस्तुत सन्दर्भ में हम पुण्य-पाप-फल की प्रामाणिकता और सच्चाई को उजागर करने हेतु सिर्फ उन्हीं के सम्बन्ध में शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत करेंगे। चौर्यकर्मों का फल : मूकता और बोधि-दुर्लभता
दशवैकालिक सूत्र में विविध चौर्यकों के फल के सम्बन्ध में कहा गया है जो . मनुष्य तप का चोर है, वचन का चोर (ठग) है, रूप का चोर है, आचार का चोर है, और भावों का चोर है, वह किल्विषिक देवत्व प्राप्ति के योग्य (नीच जाति के देवत्व योग्य) कर्म करता है। देवत्व (देवभव) प्राप्त करके भी किल्विषिक (नीच जाति के ) देव के रूप में उत्पन्न हुआ वह वहाँ यह नहीं जान पाता कि यह मेरे किस कर्म का फल है? वह (किल्विषिक देव) वहाँ से च्युत होकर भेड़-बकरी की तरह मूकता (गूंगापन) अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त करता है, जहाँ उसे बोधि-प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है।' सुविनीतता और अविनीतता का फल
सुविनीत और अविनीत को मिलने वाले इहलौकिक प्रत्यक्ष फल के विषय में निरूपण करते हुए कहा गया है-सुविनीत स्त्री-पुरुष भी ऋद्धि और महायश को पाकर सुखानुभव करते देखे जाते हैं, सुविनीत देव, यक्ष, गुह्यक (भवनपति) देव भी ऋद्धि और महायश को पाकर सुखानुभूति करते देखे जाते हैं। इसके विपरीत अविनीत स्त्री-पुरुष क्षत-विक्षत, इन्द्रियविकल, दण्ड और शस्त्र से ज़र्जर, असभ्य वचनों द्वारा प्रताड़ित, करुण, परवश और भूख-प्यास से पीड़ित होकर दुःखानुभव करते देखे जाते हैं। अविनीत देव, यक्ष और गुह्यक भी नीच कार्यों में लगाये हुए दास भाव में रहकर दुःखानुभूति करते देखे जाते हैं।
१. तवतेणे वयतेणे बतेणे य जे नरे।
आयार-भावतेणे य, कुब्वइ देवकिब्धिसं॥ लभ्रूण वि देवत्तं उबवत्री देव किब्धिसे। तत्वावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं॥ तत्तो वि से चइताणं लब्भइ एलमूयगं । नरयं तिरिक्खजोणि वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ।। -दशवकालिक अ. ५ उ. २ गा. ४६ से ४८ देखें दशवैकालिक सूत्र अ. ९, उ २ की गाथा. ९,११,७,८,१0 की व्याख्या (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) पृ. ३४८-४९ तहेव सुविणीयप्पा लोगंसि नरनारीओ। दीसंति सुहमेहंता इड्ढि पत्ता महायसा ॥९॥ तहेव-सुविणीयप्पा देवा जस्खा य गुज्झगा। दीसंति सुहमेहंता इढि पत्ता महायसा ॥११॥
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