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४६६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) ___जब सबके वापस स्वदेश लौटने का समय आया तो तीनों भाई साथ-साथ चले। सबसे बड़े श्रेष्ठिपुत्र ने खाली थैली पिताजी को सौंप दी और नीचा मुँह करके खड़ा हो गया। दूसरे ने थैली ज्यों की त्यों पिताजी को सौंप दी। तीसरे बद्धिमान पत्र ने एक थैली के बदले चार थैलियाँ पिता को सौंप दी और कहा-“पिताजी! ये लीजिये चार थैलियाँ जो आपके पुण्यप्रभाव से चौगुनी धनराशि से भरी हैं।"
पिता ने पहले को धिक्कारा, दूसरे को थोड़ा-सा उपालम्भ दिया और तीसरे पुत्र को बहुत-बहुत धन्यवाद देते हुए अपना सारा कारोबार सौंप दिया।
यह रूपक भी पुण्य-पाप के खेल में पराजय, अर्धपराजय और जय के उपलक्ष में घटित होता है। पुण्य-पाप के खेल में जो बिलकुल अनाड़ी था, आसुरी शक्ति का धनी था, वह पूर्व पुण्य से प्राप्त मनुष्य जन्म रूपी मूल धन को भी हार गया। खो दी उसने मूलपूंजी जुए, मद्य, मांस, हत्या, लूटपाट, शिकार, अन्याय आदि पापकर्मों में। दूसरा प्रकृति भद्र था, प्रकृति से विनीत था, अधिक कुशल न होने पर भी मनुष्यों के प्रति सद्भावना और सहानुभूति रखता था, उसने मनुष्यत्व रूपी मूल धन को सुरक्षित रखा, इसलिए इस खेल में आधी हार और आधी जीत रही। पुण्य-पाप का पलड़ा बराबर रखा। परन्तु तीसरे पुत्र ने पूर्वपुण्य से प्राप्त मनुष्यत्वरूपी मूलधन में व्रत, नियम, तप, दया, दान, शील, शुभभाव, त्याग आदि की आराधना करके वृद्धि की।
फलतः पहले व्यक्ति को पराजय के कारण नरक या तिर्यञ्च गति मिलती है। दूसरे को मनुष्य गति अर्धपराजय के कारण और तीसरे को विजय प्राप्त होने के कारण देवगति प्राप्त होती है।
यह है-पुण्य-पाप के खेल में पराजय, अर्ध-पराजय और विजय के रूप में फल की प्राप्ति!'
१. वही अ. ७ गा. १४, १५, १६ की व्याख्या
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