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४७४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
परस्परविरोधी आदि दोषों से दूषित दृष्टि पापमयी दृष्टि होती है। ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों में पूर्वापर-विरोधयुक्त पापमयी दृष्टि इस प्रकार है-एक ओर तो उनका कहना है-'समस्त जीवों की हिंसा मत करो।' दूसरी ओर कहते हैं- 'विभूतिकामी मानव वायव्य दिशा में श्वेत बकरे का वध करे, तथा ब्रह्म के लिए ब्राह्मण का, इन्द्र के लिए क्षत्रिय का एवं मरुत के लिए वैश्य का तथा तप के लिए शूद्र का वध करे।' इत्यादि परस्पर विरोधी पापमयी दृष्टियाँ हैं।' कामभोगों में आसक्ति का फल : असुरदेवों तथा रौद्र तिर्यचों में उत्पत्ति
___ कामभोगों और रसों में गृद्धि का कर्मफल निरूपित करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-जो साधक वर्तमान जीवन को नियंत्रित (संयमित) न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे कामभोगों और रसों में आसक्त साधक असुरदेवों के निकाय में अथवा रौद्र तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से निकल कर भी वे दीर्घ काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। बहुत अधिक कर्मों के लेप से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधिधर्म का प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ होता है। निदान से प्राप्त भोगों में आसक्ति का दुष्परिणाम : नरक प्राप्ति
निदान (आसक्ति पूर्वक भोग प्रार्थना) करने से क्या फलविशेष प्राप्त होता है ? इसे समझाने के लिए चित्तमुनि सम्भूति के जीव चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त से कहते हैं-“राजन् ! तुमने निदान से कृत (उपार्जित) कर्मों (ज्ञानावरणीयादि) का विशेष रूप से (आर्तध्यानपूर्वक) चिन्तन किया। उन्हीं कर्मों के फलविपाक के कारण (संयम में प्रीति वाले) हम दोनों एक दूसरे से बिछुड़ गए।''३ पापकर्मियों को नरक और आर्यधर्मियों को दिव्यगति
पापकर्मकर्ता और आर्य धर्म के आचरणकर्ता के उक्त कर्मों का फलनिर्देश करते हुए कहा गया है-जो (एकान्तक्रियावादी असत्प्ररूपक) व्यक्ति पापकर्म करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं, किन्तु जो मनुष्य आर्य धर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्यगति को प्राप्त करते हैं।"
१. (क) वही अ. ८ गा. ७-८ का विवेचन ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ.१२८
(ख) “मा हिंस्यात् सर्वभूतानि।" "श्वेतं छागमालभेत भूतिकामः, ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेद, इन्द्राय क्षत्रियं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे
शूद्रम्॥" २. उत्तराध्ययन सूत्र, अ.८ गा.१४-१५/ ३. वही, अ.१२ गा.८. ४. वही, अ.१८/२५.
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