________________
४५६ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
पुण्य और पाप की क्रिया का फल : भावों पर निर्भर
वस्तुतः पुण्य और पाप की क्रिया भावों पर आधारित है। भावों का परिवर्तन होते ही पुण्यबन्ध का फल, पाप फल के रूप में और पापबन्ध का फल, पुण्य फल के रूप में प्राप्त हो सकता है। कभी-कभी शुभभावों से कार्य किया, उससे पुण्यबन्ध हुआ, किन्तु उस कर्म के उदय में आने से पहले भावना अशुभ हो गई, पाप की या अधर्म की भावना हो गई, तो उसका फल अशुभकारी (पापकारी) मिलता है।
इसी प्रकार किन्हीं अशुभ पापमय कृत्यों के कारण अशुभ (पापकर्म) का बन्ध हुआ, किन्तु बाद में उसके भावों ने पलटा खाया। उसने उस कृत पापकर्मों की आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा और प्रायश्चित्त आदि करके आत्मशुद्धि कर ली । फलतः पापकर्म के फल मिलने के बदले उसे पुण्यकर्म का फल मिलता है।
शुभ-अशुभकर्म फल के विषय में एक चतुर्भंगी
स्थानांगसूत्र में शुभ-अशुभ कर्मफल के सम्बन्ध में एक चतुर्भंगी का निरूपण किया गया है। उसका भावार्थ इस प्रकार है
(१) एक होता है शुभकर्म, पर उसका विपाक होता है- अशुभ । अर्थात्- किसी शुभ कार्य के कारण बंधा है-पुण्यकर्म, किन्तु उसका विपाक (कर्मफलभोग) होता हैपापफल के रूप में।
(२) इसी प्रकार बंधा हुआ है- अशुभ (पाप) कर्म, किन्तु बाद में उन कर्मों के उदय में आने से पूर्व ही भावना बदली, शुभ आचरण हुआ, तपस्या एवं साधना की, तदनुसार अशुभ बन्ध के बदले शुभ बन्ध हो जाने से उसका फलविपाक शुभ आयापुण्यफल के रूप में।
शेष दो विकल्प सामान्य हैं-(३) जो अशुभ (पाप) रूप में बंधा हुआ है, और बाद में पापाचरण तथा अशुभ परिणाम का पुरुषार्थ हुआ, इस कारण उसका फल भी अशुभ (पाप) रूप हुआ।
(४) इसी प्रकार जो शुभ (पुण्य) रूप में बंधा है, तथा बाद में भी पुण्याचरण तथा शुभ परिणाम का पुरुषार्थ हुआ, इसलिए उसका फल भी शुभ (पुण्य) रूप हुआ।
पूर्वोपात्तं भवेत्पुण्यं भुक्तिर्नैवोपार्जयन्त्यपि ।
इह भोगः स वै प्रोक्तो दुर्भगस्याल्पमेधसः ||९८ ॥ पूर्वोपात्तं यस्य नास्ति तपोभिश्चार्जवस्यपि । परलोके तस्य भोगो धीमता सक्रियात् स्फुटम् ॥ ९९ ॥ पूर्वोपात्तं यस्य नास्ति, पुण्यं चेहाऽपि नार्जयेत् । तत् भंगमुत्रं वापि यो धिक् तं च नराधमम् ॥१००॥
Jain Education International
-स्क. मा. (मार्कण्डेय) कल्याण देवतांक पृ. १९४
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org