________________
४५८ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
(२) शुभ और अशुभ विपाक - कोई कर्म प्रारम्भ में शुभ होता है, किन्तु बाद में उसका विपाक अशुभ होता है। अर्थात् - कोई जीव पहले सातावेदनीय आदि शुभकर्म बांधता है। किन्तु बाद में तीव्र कषाय से प्रेरित होकर असातावेदनीय आदि अशुभ कर्म का तीव्र बन्ध करता है तो उसका पूर्वबद्ध सातावेदनीयादि शुभ कर्म भी असातावेदनीयादि पापकर्म में संक्रान्त (परिणत) हो जाता है। इस कारण वह अशुभ फल भोग (विपाक) कराता है।
(३) अशुभ और शुभ विपाक - कोई कर्म अशुभ होता है, किन्तु उसका विपाक शुभ होता है। अर्थात्-किसी जीव ने पहले असातावेदनीयादि अशुभ कर्म को बांधा है, किन्तु बाद में परिणामों की प्रबलता से सातावेदनीयादि उत्तम अनुभाग वाले कर्म को बांधता है। ऐसे जीव का पूर्वबद्ध अशुभ कर्म भी शुभ कर्म के रूप में संक्रान्त या परिणत हो जाता है। अतएव उसका विपाक शुभ हो जाता है।
(४) अशुभ और अशुभ विपाक - कोई कर्म अशुभ होता है, उसका विपाक भी अशुभ हो जाता है। अर्थात्- किसी जीव ने पहले पाप कर्म बांध लिया किन्तु बाद में भी पापकर्म के परिणाम बरकरार रहने से उसके अशुभ विपाक रूप अशुभ फल को ही वह भोगता है। '
मम्मण सेठ : पहले पुण्यबन्ध का, और बाद में अशुभ भावों के कारण पापफल का प्रतीक
मम्मणसेठ की कथा में उसके पूर्वजन्म की घटना दी गई है कि उसने किसी साधु को आहारदान में मोदक दिये। दिये थे उस समय भाव शुभ और उत्कट थे। इससे शुभ (पुण्य) बन्ध हुआ। लेकिन साधु आहार लेकर चला गया, उसके पश्चात् उसके मन में मोदक-दान का गहरा पश्चात्ताप हुआ - हाय ! मैंने सारे ही मोदक साधु को दे दिये। मेरे लिये तो कुछ बचा ही नहीं। मैं अब क्या खाऊँगा ? यह अच्छा नहीं हुआ। उस साधु को भी इसी समय आना था !"
यों पश्चात्ताप करते-करते अशुभ कर्म का बन्ध कर लिया। जिसका फल आगामी जन्म में मम्मण के भव में उसे मिला। उसे धन तो मिला, पर सुख-शान्ति नहीं मिल सकी। धन का न तो वह सदुपयोग कर सका और न ही अपने और अपने परिवार के उपभोग में ले सका।
9.
(क) चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा - सुभे णाममेगे सुभविवागे, सुभे णाममेगे असुभविवागे, असुभे णाममेगे सुभ विवागे, असुभे णाममेगे असुभ विवागे । स्थानांग स्थान ४, उ. ४, सू. ६०३ विवेचन (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर ) पृ. ४३०-४३१
(ख) चित्त और मन से सारांश ग्रहण, पृ. २०६
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org