Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 482
________________ ४६२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) में शुभ प्रवृत्तियों से शुभ कर्म बांधकर घटा सकता है तथा उन्हें शुभ एवं सुखद पुण्यकर्मों में संक्रमित कर सकता है। इसके विपरीत वह अपनी दुःखद एवं अशुभ दुष्प्रवृत्तियों से वर्तमान में अशुभ पापकर्मों का बन्ध करके पूर्वबद्ध सुखद एवं शुभकर्मों को अशुभ एवं दुःखद कर्मफल देने वाले बना सकता है।' शुभ को अशुभ फलभोग में बदलना या अशुभ को शुभ फलभोग में बदलना प्रत्येक व्यक्ति के अपने हाथ में है। उसके लिए चाहिए-वैसी रुचि, श्रद्धा, वृत्ति और प्रवृत्ति । सौभाग्य को दुर्भाग्य में और दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तन करने की यह कला, अथवा इस कला का रहस्योद्घाटन जैन कर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने किया है। निष्कर्ष यह है कि जो कर्मकलामर्मज्ञ बनकर कुशल खिलाड़ी की भांति पुण्य-पाप के इस खेल में चाहे जिस परिस्थिति में अपने आपको संभाल लेता है और वर्तमान में चाहे जैसी पापफलमय दुःखद परिस्थिति हो, समभाव, धैर्य एवं उत्साह के साथ अहिंसादि धर्मों का आचरण एवं निष्काम पुण्यकर्मों का उपार्जन कर लेता है, वह अपनी उस विषम दुःखद परिस्थिति को सुखद परिस्थिति में बदल देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस खेल में विजयी बन जाता है। इसके विपरीत अकुशल खिलाड़ी सुन्दर सुखमय परिस्थिति पाकर भी अपनी दुःखद, पापमयी दुष्प्रवृत्तियों के कारण इस खेल में बाजी हार जाता है। ___पुण्य-पाप के खेल में इस प्रकार की हार और जीत ही उसके दुःखद और सुखद फल हैं। पुण्य-पाप के खेल में अकुशल खिलाड़ी की हार : एक रूपक पुण्य और पाप के खेल में अकुशल मानव कैसे हार जाता है, इस तथ्य को उत्तराध्ययन में दो रूपकों द्वारा समझाया गया है (१) एक भिखारी ने मांग-मांग कर हजार कार्षापण संचित कर लिये। उन्हें लेकर वह घर की ओर चला। रास्ते में खाने पीने की व्यवस्था के लिए एक कार्षापण को भुनाकर शेष काकिणियाँ रख लीं। उन्हीं में से वह खर्च करता जाता। उनमें से जब सिर्फ एक काकिणी बची तो आगे चलते-चलते रास्ते में वह एक जगह उसे भूल आया। कुछ दूर जाने पर उसे काकिणी याद आई तो अपने पास की कार्षापणों की नौली को कहीं गाड़कर उस एक काकिणी को लेने वापस दौड़ा। लेकिन वहाँ उसे काकिणी नहीं मिली। जब वह निराश होकर वापस लौटा, तब तक कार्षापणों की नौली भी एक आदमी लेकर भाग गया। वह एक काकिणी के लोभ में सर्वस्व लुटा बैठा। अपार पश्चात्ताप हुआ उसे। १. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'करण सिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' लेख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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