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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४४३
जगत की दो प्रकार की व्यवस्था : शाश्वतिकी और प्रयत्नसाध्य
इसे हमें आगमिक प्ररूपणा की दृष्टि से भी समझना आवश्यक है। आगम में (जगत्) की व्यवस्था (स्थिति) दो प्रकार की बतलाई गई है - एक शाश्वतिक व्यवस्था और दूसरी प्रयत्नसाध्य व्यवस्था ।
देवलोक, नरक और भोगभूमि में शाश्वतिक ( नियत ) व्यवस्था होती है। वहाँ अनादिकाल पूर्व जो व्यवस्था पहले थी, वही (वैसी ही ) व्यवस्था आज भी है। जिस देवलोक में जितने विमान आदि हैं, या जिस नरक में जितने आन्तरे, या क्षेत्रगत सर्दी-गर्मी, आवास स्थान आदि नियत हैं, वे उतने ही रहते हैं, रहेंगे । उनके लिए सुख या दुःख के वेदन में निमित्तभूत सामग्री अनायास ही मिलती है, और जीवन के अन्तिम क्षण (आयुष्य पूर्ण होने) तक उसका संयोग बना रहता है। यह बात दूसरी है कि जिनके कषाय उपशान्त या मन्द होते हैं, वे सुख-दुःख का संवेदन अन्य रूप करते हैं, तीव्र कषाय अधिकाधिक संवेदन करते हैं।
पुण्यातिशय न तो इस सामग्री या संयोग में वृद्धि ही कर सकता है, और न ही हीनपुण्य या पापातिशय उसमें न्यूनता ला सकता है। देवों के जिस प्रकार साता का उदय होता है, उसी प्रकार असाता का भी उदय होता है। नारकों के असाता का उदय होता है, उसी प्रकार साता का भी उदय होता है । आगम का यह कथन तभी युक्तियुक्तं हो सकता है, जब अनुकूल सामग्री या संयोग मिलने - न मिलने पर भी सुख या दुःख का संवेदन न्यूनाधिक न होता हो, सबको एक सरीखा सुखानुभव या दुःखानुभव होता हो ।'
लोक में दूसरी व्यवस्था प्रयत्नसाध्य है। यदि केवल पूर्वकृत कर्म ही इनका कारण होता तो मनुष्य जाति का जो आज भौतिक विकास हुआ है, वह कदापि न होता । जिस युग में यहाँ भोगभूमि थी, उस समय यौगलिक जनता प्रकृति से प्राप्त साधनों से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी । उस समय मनुष्य एक ही ढर्रे से, एक ही स्थिति से जीता. था। लेकिन कर्मभूमि आई । जनसंख्यावृद्धि के साथ-साथ मनुष्यों की आवश्यकताएँ बढ़ीं। एक ही प्रकार के ढर्रे से मनुष्य जीवन निर्वाह नहीं कर सकते थे। . असि, मसि, कृषि तथा विविध शिल्प, उद्योग एवं कलाओं का आविष्कार हुआ। यह मानव प्रयत्नसाध्य व्यवस्था थी।
मनुष्य समाज में उत्तरोत्तर वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण धनसम्पन्नता बढ़ी। मनुष्य अलग-अलग सम्प्रदायों में आजीविका की दृष्टि से विभक्त हुआ । सबके पृथक्-पृथक् नियम बने। भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से समाज की व्यवस्थाएँ बनीं।
१. महाबन्धो भाग - २ प्रस्तावना - कर्ममीमांसा (पं. फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री) से; पृ. २६
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