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४४६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
सम्यक्चारित्र के पालन करने के, अथवा मोहक्षय करने के उत्तम अवसर एवं निमित्त मिले और वे धर्मनिष्ठ बने, कई मोक्षगामी बने ।
उपशमभाव के साथ पुण्योदय की अनुकूलता रहने पर ही अनादि मिध्यादृष्टि को प्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। अतः पुण्यकर्म के साथ लौकिक भौतिक कामना एवं वासना का विष न हो तो उससे आत्मिक लाभ अवश्य मिलता है, आत्मोत्थान की दिशा में गति - प्रगति करने की भावना, धारणा एवं शक्ति भी प्रबल होती जाती है। पुण्यानुबन्धी पुण्य तो नियमतः आत्मिक लाभपूर्वक ही होता है। अतः निःस्वार्थ, निष्काम, सेवाभाव, दया, दान आदि पुण्यकर्म आत्मिक गुणों के, आत्मशक्तियों के विकास में सहायक बनते ही हैं, इसमें सन्देह को कोई अवकाश नहीं है । ' पुण्य-पाप कर्म का फल परलोक में ही नहीं, इस लोक में भी मिलता है
कई लोगों की ऐसी धारणा बन गई है - पुण्यकर्म एवं पापकर्म जो यहाँ किये जाते हैं, उनका सुख-दुःखरूप फल इस लोक में नहीं मिलता, इनका फल तो परलोक में ही मिलता है। किन्तु यह धारणा भी निराधार है। पुण्यकर्म और पापकर्म का फल यहाँ भी मिलता है, और आगामी जन्म एवं जन्मों में भी मिलता है।
कर्मविज्ञान के अनुसार एक बार आचरित पापकर्म का फल कम से कम दस गुणा हो जाता है। यदि उसे तीव्र रस के साथ आचरित किया गया हो तो उसका विपाक करोड़ गुणा हो जाता है। कभी-कभी अनन्तानुबन्धी कषाय के तीव्र उदय से अन्तर्मुहूर्त्तभर में ऐसा कठिन कर्म का बन्ध हो जाता है, जिसका फल जीव को अनेकानेक जन्मों तक भोगना पड़ता है। गजसुकुमाल मुनि ने ९९ लाख जन्मों (भवों) पहले अपनी सौत के पुत्र के सिर पर उबलता हुआ गर्म पानी डाला था, जिसका फल उन्हें इस (गजसुकुमाल के) भव में सोमल ब्राह्मण द्वारा उनके लुंचित मस्तक पर मिट्टी की पाल बांधकर धधकते अंगारे डालकर मार डालने के रूप में मिला । यद्यपि उन्होंने तो इस उपसर्ग को समभाव से एकमात्र आत्मलीन होकर सहन करके अपना सर्वकर्ममुक्ति का कार्य सिद्ध किया ।"
आम जनता में एक भ्रान्ति और फैली हुई है कि वर्तमान में जो लोग खुलेआम बेईमानी, अन्याय, अत्याचार, हिंसा आदि पापकर्मों का आचरण कर रहे हैं, वे उनके फलस्वरूप निर्धन, विपन्न आदि होने के बदले धन-सम्पत्ति, जमीन जायदाद; तथा
१. जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'पुण्य-पाप की अवधारणा' लेख से, पृ. १६१ इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिये देखिये- 'कर्मफल: यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ?' शीर्षक निबन्ध
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३. जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त - विशेषांक में प्रकाशित "कर्मविपाक' लेख से, पृ. १२० ४. देखें - अन्तकृद्दशांगसूत्र में गजसुकुमालमुनि की दीक्षा और मोक्ष का प्रकरण ।
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