Book Title: Karm Vignan Part 02
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 467
________________ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४४७ अन्यान्य सुख-साधनों के अधिकारी बनते तथा फलते फूलते जा रहे हैं, इसके विपरीत जो व्यक्ति ईमानदारी, न्यायनीति, धर्माचरण एवं धर्मध्यान में प्रवृत्त हैं, उनके पास साधन सामग्री की अत्यन्त कमी है। वे निर्धनता और अभाव में जिंदगी जी रहे हैं। ऐसा, विपरीत परिणाम देखकर कई लोग कह देते हैं-पुण्य-पाप का फल सुखदुःख मानना महज भ्रम है। पुण्य-पाप को मान कर इनके पीछे लगे रहने या इनके अनुसार प्रवृत्तनिवृत्त होने से व्यर्थ ही परेशानी उठानी पड़ती है। संसार में प्रायः प्रत्यक्षतः यह देखकर लोग कहने लगते हैं-"यह सब मन को तसल्ली देने और समझाने का ढंग पापकर्मी सभी सुखी और पुण्यकर्मी सभी दुःखी नहीं दिखाई देते इस भ्रान्ति को प्रत्यक्षवादी, नास्तिक और अपराधीवृत्ति के लोग ही प्रायः फैलाया करते हैं। पुण्यकर्म या पापकर्म के फल का सम्बन्ध केवल इसी जन्म से नहीं है, इसलिए यह समझना ठीक नहीं होगा कि पापकर्म या अनैतिक कर्म करते हुए भी जो लोग सुखी और सम्पन्न दिखाई देते हैं, वह उनके इसी जन्म के किये हुए कर्मों का फल नहीं है। उनकी सम्पन्नता और सुखशीलता का सम्बन्ध पूर्वकृत कर्मों का प्रतिफल है।' ऐसा भी एकान्ततः नहीं प्रतीत होता कि पापकर्म या अपकर्म करने वाले सभी लोग सुखी और निश्चिन्त हों। कई ऐसे भी धनाढ्य एवं साधन-सम्पन्न हैं, जो अपने कृत पाप कर्मों का फल इसी जन्म में अनेक रोग, चिन्ता, उद्विग्नता और तनाव आदि के रूप में भोग रहे हैं। जो इस जन्म में अपने द्वारा कृत पापकर्मों का फल नहीं भोग रहे हैं, उनके वे पापकर्म कालान्तर में या अगले जन्म अथवा जन्मों में फलीभूत होते ही हैं। जो धर्मनिष्ठ, नीतिमान्, सदाचारी एवं पुण्यकर्म करने वाले व्यक्ति इस समय विपन्न और दुःखी दिखाई देते हैं, या दुःखानुभव करते हैं; सम्भव है, यह उनके पूर्वकृत किसी पापकर्म का फल हो; किन्तु जो सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे धन की अथवा साधनों की अल्पता या बाह्य दृष्टि से प्रतीत होने वाली विपन्नता से असन्तुष्ट, उद्विग्न एवं दुःखी प्रायः नहीं होते। अगर वे ऐसी दुष्परिस्थिति में उद्विग्न एवं दुःखानुभूत होते हैं तो समझना चाहिए, यह उनके पूर्वकृत पापकर्म का फल है, तथा वे दुःख और आर्तध्यान से पीड़ानुभव करके और नये कर्म बांध रहे हैं। फिर ऐसा भी एकान्ततः दृष्टिगोचर नहीं होता कि सभी धर्मपरायण, नीतिमान एवं सम्यग्दृष्टि व्यक्ति दुःखी और विपन्न हों। और न ही सभी पापकर्मी सुखी एवं सम्पन्न दिखाई देते हैं। १.. इस विषय में विशेष स्पष्टीकरण के लिए कर्मविज्ञान प्रथम भाग में प्रकाशित 'कर्म-अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित' लेख, पृ. १९९-२00 देखें २. केवल अपने ही लिये न जीएँ (श्रीराम शर्मा आचार्य) से भावांश ग्रहण, पृ. १०९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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