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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४२७
ऐसा आभास होता है कि कोई देव मेरे हृदय में बैठा है, और वही मुझे जैसे और जहाँ नियुक्त करता है, वैसे और जहाँ नियुक्त होकर मैं वैसा ही करता हूँ।"
सचमुच, दुर्योधन के मन में जिस देव का भ्रम था, वह और कोई नहीं स्वयं का पाप कर्मों से अभ्यस्त आत्मदेव था, जो अज्ञान और मोह से आवृत था। अगर उसकी आत्मा ने शुद्ध हृदय से राग-द्वेष से परे होकर अपनी आत्मा के साथ लगे हुए पाप-पुण्य का यथार्थ ज्ञान-भान एवं दर्शन कर लिया होता तो वह पापकर्म में प्रवृत्त होने से रुक
जाता।
यदि मनुष्य को अपनी आत्मा के साथ बद्ध होने वाले पुण्य-पाप कर्मों का तथा उनके शुभाशुभ फल का तथा धर्म-अधर्म का सम्यक् ज्ञान हो जाए तो वह पापाचरण को छोड़कर या तो पुण्याचरण में प्रवृत्त होता है, अथवा संवरं निर्जरारूप धर्माचरण में प्रवृत्त होकर शुभाशुभ कर्मों से मुक्त हो जाता है।
अज्ञान दूर होने पर ही पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष का ज्ञान सुदृढ़ होता है
दशवैकालिक सूत्र में इसी तथ्य को आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से व्यक्त किया गया है- “जो जीवों को भी विशेष रूप से जान लेता है, और अजीवों को भी विशेष रूप से जान लेता है, (इस प्रकार ) जीव और अजीव दोनों को विशेष रूप से जानने वाला ही वह संयम को (संवर-निर्जरा को ) जान सकेगा। ऐसी स्थिति में वह समस्त जीवों की बहुविध गति गति को भी जान सकेगा। जब वह सर्वजीवों की बहुविध गति - आगति को जान लेता है, तब वह (गति-आगति-जन्म मरण के एवं तज्जन्य एवं तत्सम्बद्ध दुःखों के कारणभूत) पुण्य-पाप कर्मों को तथा कर्मों के बन्ध एवं उनसे मोक्ष को भी जान लेता है। इन्हें जान लेने पर ही वह दैविक (दिव्य) एवं मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है और फिर वह बाह्य आभ्यन्तर संयोगों (क्रोधादि तथा स्वर्गादि के प्रति ममत्व सम्बन्धों) का परित्याग कर देता है। " २
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(क) देखें, उत्तराध्ययनसूत्र में चित्त सम्भूतीय नामक १३ वें अध्ययन की गाथा २५-३० (ख) जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ।
केनाऽपि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥
२. जो जीवे वि वियाणेइ अजीवे विवियाणे |
जीवाजीवं वियाणतो, सो हु नाहीइ सजमं ॥१३॥ जया जीवमजीवे दो वि एए वियाण । तया गई बहुविहं सव्वं जीवाण जाण ॥ १४ ॥ जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाण । तया पुण्णं च पापं च, बंध मुक्खं च जाणइ ॥१५॥
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-महाभारत
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