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४४० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
कहना शुरू किया कि पुण्यकर्म के फलस्वरूप सुखकर सामग्रियों की प्राप्ति होती है और पापकर्म के फलस्वरूप दुःखकर सामग्री की । कतिपय जैन विद्वानों ने भी इस भ्रान्ति का अनुसरण किया है। मोक्षमार्ग प्रकाश में पं. टोडरमलजी लिखते हैं-"वेदनीय कर्म करि तो शरीरविषै व शरीर तै बाह्य नाना प्रकार सुख-दुःखनि के कारण पर- द्रव्यनि का संयोग जुटे है। शरीर विषै आरोग्यपनौ, रोगीपनी, शक्तिवानपनौ, दुर्बलपनौ अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनि के कारण ही हैं। बहुरि बाह्य विषै सुहावना ऋतु, पवनादिक वा इष्ट स्त्री-पुत्रादिक वा मित्र धनादिक ं "सुख-दुःख के कारण ही हैं।" एक भ्रन्ति : भाग्य की, विधाता की लिपि को कौन मिटा सकता है?
नीतिकार कर्म की; विशेषतः शुभकर्म की प्रशंसा में लिखते हैं- “भाग्य ही सर्वत्र फलित होता है, विद्या और पुरुषार्थ कुछ काम नहीं आता ।”
ये भाग्यवादी यहाँ तक कह बैठते हैं-"विधाता ने जो कुछ ललाट पर लिख दिया है, उसे मिटाने में कोई समर्थ नहीं है । "
“पापी जीव समुद्र में प्रवेश करने पर भी रत्न नहीं पाता और पुण्यात्मा जीव तट पर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है।”
" जिसका भाग्य अनुकूल होता है, उसे समुद्र के उस पार गई हुई वस्तु भी हाथ में आ जाती है और जिसका भाग्य प्रतिकूल होता है, उसके हाथ में आई हुई वस्तु भी नष्ट हो जाती है। "
पौराणिकों और कथालेखकों ने सर्वत्र इसी प्रकार का चित्रण किया है। जीव स्वयं ही भाग्यविधाता, स्वयं ही अपना पतनकर्ता
इस प्रकार के भाग्यवादी व्यक्ति सब कुछ भाग्य ( शुभ-अशुभ कर्म ) के भरोसे छोड़कर अकर्मण्य बनकर बैठ जाते हैं। भाग्य भी तो मनुष्य के पूर्वकृत कर्म हैं, उन्हें भी बदला जा सकता है, सत्पुरुषार्थ के द्वारा। इसीलिए आगमों में स्थान-स्थान पर कहा गया
१. (क) महाबंध भाग २, प्रस्तावना - 'कर्ममीमांसा' से, पृ.
(ख) मोक्षमार्गप्रकाश (पं. टोडरमलजी) से पृ. ३५, ५९
(क) भाग्यं फलति सर्वत्र, न च विद्या, न च पौरुषम् । (ख) लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः ?
(ग) जलनिधि परतटगतमपि करतलमायाति यस्य भवितव्यस्य । करतलगतमपि नश्यति यस्य भवितव्यता नास्ति ॥”
(घ) नाभाव्यं भवतीह कर्मवशतो, भाव्यस्य नाशः कुतः ?
२.
३. पूर्वजन्म कृतं कर्म तद् दैवमिति कथ्यते ।
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