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धनादि साधन स्वयं न तो सुखकर हैं, न ही दुःखकर
वैसे भी देखा जाए तो धन, साधन आदि जितने भी पदार्थ हैं, वे अपने आप में न तो मनोज्ञ हैं और न अमनोज्ञ, तथा न तो वे प्रीतिकर हैं न ही अप्रीतिकर; इसी प्रकार न तो सुखदाता हैं, न दुःखदाता । मनुष्य स्वयं ही स्थूलदृष्टि से धनादि साधनों या पर-पदार्थों पर जब प्रियता - अप्रियता की छाप लगा देता है, या उनके साथ सुख-दुःख-प्राप्ति की कल्पना को जोड़ देता है, तब वे पदार्थ सुखकर- दुःखकर या प्रीति- अप्रीतिजनक हो जाते हैं।
पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४३९
वर्तमान युग में धन कमाने की मूर्च्छा से धनिकों को सुख-शान्ति कहाँ ?
बल्कि वर्तमान युग में तो कई लोगों को तो धन कमाने की, सुख सामग्री बढ़ाने की एक धुन - एक मूर्च्छा लगी हुई है। वे सुख के लिए धन नहीं कमाते, किन्तु अपने बड़प्पन का, अपनी शान-शौकत का प्रदर्शन करने तथा अपने अहंकार की तुष्टि - पुष्टि के लिए धन कमाते हैं।
अतः किसी भी आत्मबाह्य पर पदार्थ का मिलना सुख का मिलना नहीं है। | सुख, संतोष, शान्ति और निश्चिन्तता की प्राप्ति ही धर्माचरण और पुण्यकर्म का वास्तविक फल है, बल्कि धन और सांसारिक पदार्थों का संग्रह करने, उन पर एकाधिकार एवं ममता जमाकर बैठने वाले जमाखीर या कृपण तो अधिक दुश्चिन्ताओं में जीते हैं, अनेक आधि-व्याधि-उपाधियों से घिरे रहते हैं । उन्हें सुख-शान्ति, निश्चिन्तता, सन्तोष और स्वाधीनता का आनन्द कहाँ प्राप्त होता है ?
परिग्रह संज्ञा मोहरूप पापकर्म के उदय से होती है
भगवान महावीर ने तो परिग्रह की संज्ञा को मोहकर्म का उदय माना है। अशुभ कर्म-पापकर्म के उदय से ही परिग्रहसंज्ञा, परिग्रह के प्रति आसक्ति, आकर्षण या मूर्च्छा उत्पन्न होती है; पुण्यकर्म के उदय से नहीं । अतः इस भ्रान्ति को निकाल देना चाहिए कि धन या पदार्थों की प्राप्ति पुण्यकर्म का फल है, अथवा धन या पदार्थों के मिलने से सुख-शान्ति और न मिलने से दुःख और अशान्ति प्राप्त होती है। धर्म-अधर्म के या शुभ-अशुभ कर्म के फल का सम्बन्ध मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व को बनाने-बिगाड़ने से है; अथवा ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति; इन आत्मिक गुणों को बढ़ाने-रोकने से है, पदार्थों की प्राप्ति अप्राप्ति से नहीं ।'
पुण्य के विषय में जैन विद्वानों और लेखकों की भ्रान्ति
इसके विपरीत कतिपय कथा-लेखकों, नीतिकारों और नैयायिक दर्शन ने यह
घट-घट दीप जले से भावांश ग्रहण, पृ. ४०, ४२
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