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४३० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
के बजाय पापकर्म ही उपार्जित करता है, वह सत्ता, धन या पद आदि के अहंकार में चूर होकर लाखों मनुष्यों का संहार करवा सकता है, बसे हुए नगरों को उजाड़ सकता है, लाखों का शोषण और उत्पीड़न करके, भ्रष्टाचार से, अन्याय-अनीति से पापमयी सम्पत्ति प्राप्त कर सकता है परन्तु धर्मोपार्जन नहीं कर पाता। वास्तविक पुण्यकर्म में स्वार्थत्याग, तप और बलिदान की भावना होती है
_इसलिए वास्तविक पुण्य कर्म वही है, जो सदुद्देश्य से, विवेकपूर्वक निष्काम भाव से किया जाए, जिसके मूल में स्वार्थत्याग, तप और बलिदान की भावना हो। उस पुण्यकर्म के फलस्वरूप साधारण से आम्नवजनक प्रतीत होने वाले कार्य भी संवर रूप हो जाते हैं और पुण्य के साथ स्वार्थ, अहंकार एवं भोगवृत्ति का विष मिल जाने से वे ही पुण्यकार्य संवरजनक होने की अपेक्षा आम्नवोत्पादक बन जाते हैं। सकाम निर्जराअकामनिर्जरा, तथा सकाम और निष्काम पुण्यकर्म का अन्तर समझ लेना चाहिए।' यह पुण्यकर्म नहीं, कल्याणकारक नहीं, व्यवसाय है ___जो कार्य सांसारिक लाभ या भौतिक प्रतिफल प्राप्त करने के उद्देश्य से किये जाते हैं वे बाहर से भले ही पुण्य दिखाई देते हों, भीतर से उनका पुण्यतत्त्व नष्ट हो जाता है। वे एक प्रकार से सौदेबाजी या व्यवसाय बन जाते हैं। उनसे न तो आत्म कल्याण के पथ पर बढ़ना होता है और न ही मानसिक सुख-शान्ति प्राप्त होती है। जिससे लौकिक लाभ मिल चुका, उससे फिर पारलौकिक लाभ कैसे मिलेगा?
वह पुण्य जो तुच्छ स्वार्थ या लौकिक-पारलौकिक कामना-वासना या अर्थलाभादि के उद्देश्य से प्रेरित होकर किया जाता है, वह और कुछ भले ही हो, पुण्य नहीं हो सकता। जिसका लौकिक लाभ मिल चुका, उससे पारलौकिक प्रयोजन कैसे सिद्ध हो सकता है ? दुहरा प्रयोजन या दुबारा लाभ कैसे मिलेगा? ___जिस चेक को एक बार बैंक में भुना लिया गया, उसे दुबारा भुनाने में सफलता नहीं मिलती। जिस टिकट पर मुहर लग चुकी, उसे दुबारा लिफाफे पर चिपकाये जाने से वह चलेगा नहीं। यही बात पुण्यकर्मों पर भी लागू होती है। वाहवाही, प्रशंसा, प्रतिष्ठा, सत्ता या पद हासिल करने की नीयत से कोई पुण्यकार्य किया गया, उससे एक बार वाहवाही, पद या सत्ता या प्रतिष्ठा लूट लेने का लाभ मिल जाने पर वह पुण्यकर्म चले हुए कारतूस की तरह अपनी शक्ति और सम्भावना को समाप्त कर चुका होता है।
१. केवल अपने लिए ही न जीएं (श्रीराम शर्मा आचार्य) से भावांश ग्रहण पृ. १५८ २. वही, (श्रीराम शर्मा आचार्य) भावांश ग्रहण, पृ. १६०
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