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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४३१ शुभाशुभ परिणामों (भावों) के अनुसार ही पुण्यकर्म और पापकर्म का बन्ध व फल ___ अतः पुण्यकर्म हो या पापकर्म जिन परिणामों (भावों) से बांधा गया है, उन्हीं परिणामों के अनुसार उसका फल मिलता है। वास्तविक सुख तो आत्मिक सुख (आनन्द) है, जो शाश्वत है, निराबाध है, अक्षय है। वह कर्मों के क्षय, निरोध या निर्जरण से प्राप्त होता है। परन्तु उतनी दूर तक कोई न पहुँच सके तो भी जो सात्त्विक सुख है, जो नैतिकता एवं लौकिक धर्म की आराधना एवं परोपकार, सेवा, दान, सहयोग, पीड़ितों के प्रति सहानुभूति आदि पुण्यकर्मों (सुकृत्यों) से प्राप्त होता है। पुण्यकर्म निःस्वार्थभाव से हो, तभी उसका यह वांछित फल प्राप्त होता है। पाप कर्म के दुष्फल से बचावः सदाचार-सत्कर्म-नीति परायण रहकर पुण्य कर्म करने से ही
कई लोग अपने पाप कर्मों के फल से बचने के लिए दान, दक्षिणा, पूजापत्री, या कीर्तन-भजन करा लेते हैं और यह मानते हैं कि इससे उनको पूर्वकृत पापकर्म का फल नहीं मिलेगा। किन्तु यह विचार सम्यक् नहीं है। पूर्वकृत पापकर्म के फल से बचने के लिए तप, प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप, क्षमायाचना, आलोचना आदि करनी होती है। इसके बिना पापाचरण का फल क्षम्य नहीं हो सकता। किन्तु यदि वह पापकर्म निकाचित रूप से तीव्र अध्यवसाय से बांधा गया है, तब तो उसका फल उसी रूप में भोगे बिना कोई चारा नहीं है।
कई लोग दिन और रात में कुछ देर भगवान का नाम स्मरण, कीर्तन, भजन या पूजा उपहार कराकर यह मानते हैं कि इससे पुण्य लाभ हो जाएगा, परन्तु उसके साथ उनकी स्वर्गप्राप्ति की तथा इहलौकिक पारलौकिक वैभव, विलास, सुखभोग आदि की जो कामना (निदान-वासना) है, वह उन्हें यथार्थ पुण्यलाभ से वंचित कर देती है।' ___इसीलिए भगवान् महावीर ने तप तथा धर्माचरण (पंचाचार) के पालन के साथ इहलौकिक पारलौकिक आशंसा, कामभोग लिप्सा, स्वार्थ और लोभलालसा आदि को वर्जित बताया है।
अतः भगवद्स्तुति उपासना या पूजापाठ के साथ जब तक मनुष्य धर्माचरण या कम से कम नैतिक जीवन परायण सदाचारनिरत एवं सत्कर्मरत नहीं होगा, तब तक उसका कर्म न तो पुण्यरूप होगा, और न ही यथार्थ पुण्यफल मिलेगा। १. वही, भावांश ग्रहण, पृ. १२५ २. देखें, दशवैकालिक सूत्र अ. ९, उ. ४ के सू. ४ और ५ का 'न इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा
'' तथा 'न इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा", इत्यादि तपःसमाधि और आचार समाधि से सम्बन्धित पाठ
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