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४२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
भी व्यक्ति, परिस्थिति, क्षेत्र, काल, ग्रह-नक्षत्र या देव-दानव आदि हो सकता है। अतः यह निश्चित है कि जिसने इस जन्म में या पूर्वजन्म में दुष्कर्मों या पापकर्मों की गठरी बाँधी; संचित पाप कर्म परिपाक होने पर उदय में आते हैं और दुःख-दारिद्र्य आदि के रूप में फल भुगवाते हैं।
इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा है-“जितने भी दुःख हैं, दुःखानुभव हैं, वे सब आत्मकृत होते हैं, परकृत नहीं।" जितने भी अविद्यावान् एवं आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं, वे स्वयमेव अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं।' अज्ञानतावश वे अपने ही असंयम एवं पापकर्मों में आसक्ति के कारण अपने लिये दुःखद स्थिति पैदा कर लेते हैं। अनेक दुःखों से बार-बार त्रस्त होने पर भी पापकों को नहीं छोड़ते
इस सत्य को सभी जानते हैं कि पापकर्मों का परिणाम अकल्याणकारी एवं दुःखद होता है और पुण्यकर्मों का परिणाम कल्याणप्रेरक एवं सुखद; तथापि वे पापकर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं, इसका कारण मनुष्य का मिथ्याज्ञान ही है।
बार-बार उन पाप कर्मों में प्रवृत्ति करने के कारण मनुष्य का अभ्यास दृढ़ होकर कुसंस्कारों का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार स्वकृत कुसंस्कार बड़े भयानक होते हैं, वे बार-बार दुःख, संकट और विपत्ति के आ पड़ने पर भी वे उससे त्रस्त होते जाते हैं। .
आचारांग सूत्र के अनुसार “वे मोहमूढ़ पुरुष आत्मकल्याण का अवसर आने पर भी उससे वंचित रह जाते हैं, पूर्वसंस्कार, पूर्वाग्रहपूर्ण मिथ्या-दृष्टि, कुल-जाति का अभिमान, साम्प्रदायिक अभिनिवेश, राष्ट्रान्धता आदि की पकड़ के कारण वे अनेक दुःखों से त्रस्त होने पर उन्हें छोड़ नहीं सकते।
जिस प्रकार संभूति के जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को सांसारिक कामभोगों को छोड़ना दुष्कर हो गया था, तथा दुर्योधन धर्म-अधर्म को साधारण रूप से जानने पर भी वह धर्म (पुण्यकार्य) में प्रवृत्ति और अधर्म कार्य (पापकर्म) से निवृत्ति नहीं कर सका। उसने यही कहा था-"मैं धर्म क्या है ? यह जानता हूँ, तथापि उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं हो रही है, तथा अधर्म क्या है ? यह भी मैं जानता हूँ, किन्तु उससे निवृत्त नहीं हो पा रहा हूँ।
१. (क) “अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे।"
-भगवती. १७५ (ख) “जावंतऽविज्जापुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा। लुपंति बहुसो मूढा संसारम्मि अणंतए।"
-उत्तराध्ययन ६/१ २. देखें-भंजगा इव सन्निवेसं नो चयंति।-(आचारांग १/६/१ सू. १७८) का अनुवाद एवं विवेचन
(आ. प्र. समिति, ब्यावर) पृ. १९५
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