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३८८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
लगी। वह भस्म होकर नीचे गिर पड़ा। उसमें जितने यात्री थे, सभी मर गये। इस घटना में आयुष्यकर्म जो बाद में भोगकर क्षय किया जाने वाला था, वह इस विमान दुर्घटना के कारण शीघ्र उदीरणा होने से अर्थात्- आयुष्य कर्म उदय को प्राप्त होने से शीघ्र क्षय हो गया। यह भी परेण उदीरित कर्म हैं।
स्व-पर-उभय द्वारा उदीर्यमाण- वे कर्म हैं, जिनमें अपने द्वारा और दूसरे के द्वारा उदीरणा करके जो कर्म उदय को प्राप्त कराये जा रहे हों। जैसे- एक साधक को अक्समात् दुःसाध्य व्याधि ने आ घेरा, साथ ही साधक ने अपने शरीर की अंशक्ति, शिथिलता आदि जानकर स्वयं आजीवन भक्तप्रत्याख्यान नामक चौविहार अनशन (संथारा) कर लिया। इस घटना में वेदनीय और आयुष्य दोनों कर्मों को स्व-पर द्वारा उदीरितउदयप्राप्त' किया गया है।
उपर्युक्त सोलह प्रकार की विशेषताओं से युक्त कर्म ही विपाक (फलभोग) के योग्य होते हैं।
उदय को प्राप्त (उदीर्ण) होने के पांच निमित्त
इनके अतिरिक्त विविध कर्मों के उदय को प्राप्त (उदीर्ण) होने के पाँच आलम्बन (निमित्त) प्रज्ञापनासूत्र में और बताये गये हैं - ( १ ) गति को प्राप्त करके, (२) स्थिति को प्राप्त करके, (३) भव को प्राप्त करके, तथा (४) पुद्गल को प्राप्त करके एवं (५) पुद्गल-परिणाम को प्राप्त करके। इनमें से प्रथम तीन स्वतः उदीरणा के निमित्त हैं, और शेष दो परतः उदीरणा के निमित्त हैं।
स्वनिमित्त से उदय को प्राप्त में सर्वप्रथम निमित्त हैं-गति । चार गतियाँ हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । इन चारों में से किसी एक गति को पाकर कोई कर्म तीव्र अनुभाव (विपाक) वाला हो जाता है। अर्थात् शीघ्र उदय को प्राप्त हो जाता है। जैसेअसातावेदनीय कर्म नरकगति को प्राप्त करके शीघ्र उदय में आकर तीव्र अनुभाव (फल भोग) वाला हो जाता है। नारकों के लिए नरकगति में असातावेदनीय कर्म जितना तीव्र असातारूप फल वेदन का निमित्त होता है, उतना तिर्यञ्चों आदि के लिए तिर्यञ्चगति आदि में नहीं होता।
कर्म के शीघ्र उदय को प्राप्त होने में दूसरा निमित्त है- स्थिति। सर्वोत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त अशुभ कर्म मिथ्यात्व के समान तीव्र अनुभाव वाला होता है।
तीसरा निमित्त है - भव (जन्म) । आशय यह है कि कोई-कोई कर्म किसी भव (मनुष्यादि जन्म) को पाकर शीघ्र उदय में आकर अपना विपाक विशेष रूप से प्रकट
१. देखें, प्रज्ञापनासूत्र पद २३, सू. १६७९ के 'सयं वा उदिण्णस्स, परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स' मूल पाठ का विवेचन ( आ. प्र. समिति, ब्यावर) पृ. २०
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