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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४१५
पुण्यकर्म का सुफल : वैदिक वाङ्मय में
पुण्यक्रिया के सुफल की चर्चा करते हुए 'योगवशिष्ठ' में कहा गया है- "हे सज्जन! मानसिक व्यथाएँ (आधि) और शारीरिक व्याधियाँ भी शुद्ध पुण्यक्रिया और साधुसेवा से नष्ट हो जाती हैं। पुण्य से मन उसी प्रकार निर्मल (पवित्र) हो जाता है, जिस प्रकार कसौटी पर कसने से सोना निर्मल हो (निखर जाता है। हे राघव ! पुण्यकर्म से देह शुद्ध होने पर चित्त में आनन्द की वृद्धि होती है। सत्त्व (अन्तःकरण) की शुद्धि से प्राणवायु व्यवस्थित रूप से शरीर में प्रवाहित होती है। अन्न का पाचन ठीक तरह से होता है, इसके कारण व्याधि नष्ट हो जाती है। "
छान्दोग्य उपनिषद् में बताया गया है कि “वास्तव में, यह जीव पुण्यकर्म से पुण्यशाली होता है, अर्थात् पुण्य-योनियों में जन्म पाता है, और पापकर्म से पापात्मा होता है, अर्थात्-पाप-योनियों में जन्म ग्रहण करके दुःख उठाता है। "
अच्छे कर्म करने वाला अच्छा होता है, सुखी एवं सदाचारी कुल में जन्म पाता है, और पाप करने वाला पापात्मा होता है, पापी कुल में जन्म लेकर पापाचार में वृद्धि के फलस्वरूप दुःख पाता है।
‘छान्दोग्य-उपनिषद्’ भी इस तथ्य की साक्षी है कि “ अच्छे आचरण करने वाले उत्तम योनि (ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य योनि ) प्राप्त करते हैं और नीच आचरण (पापकर्म) करने वाले नीच योनियों (नरक, तिर्यञ्च या अन्त्यज, म्लेच्छ, अनार्य) योनियों में जन्मते हैं।””
जैनदृष्टि से पुण्यफल की चर्चा
इसी तथ्य का समर्थन ‘धवला' में किया गया है - वहाँ प्रश्न किया गया है-पुण्य के
१. (क) आधिक्षयेणाधि भवाः क्षीयंते व्याधयोऽप्यलम् ।
शुद्धया पुण्यया साधो ! क्रियया साधुसेवया ॥ मनः प्रयाति नैर्मल्यं निकषेणेव कांचनम् । आनन्दो वर्धते देहे शुद्धे चेतसि राघव ! ॥ सत्त्वशुद्धया वहन्त्येते क्रमेण प्राणवायवः । जरयन्ति तथाऽन्नानि व्याधिस्तेन विनश्यति ॥
- योगवाशिष्ठ
–छान्दोग्य उपनिषद्
(ग) तद् य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ं । ब्राह्मण योनि क्षत्रिययोनि वैश्ययोनि वा । अथ य इह कपूय चरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां
योनिमापद्येरन् ।
- छान्दोग्योपनिषद् ५/१०/७
(ख) “पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन ॥
साधुकारी साधु भवति, पापकारी पापो भवति ॥
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