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३९८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
फल दे सकता है। उपशमन से कर्म की सत्ता नष्ट नहीं होती, सिर्फ अमुक कालविशेष तक वह फल देने में अक्षम रहता है।
उपशमन केवल मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में हो सकता है। जिस प्रकार वर्षा के जल से जमीन पर पपड़ी आ जाने से भूमि में स्थित पौधे दब जाते हैं, उनका बढ़ना रुक जाता है, वैसे ही कर्मों को ज्ञानबल या संयम से दबा देने से उनका फल देना रुक जाता है। ऑपरेशन करते समय पीड़ा या कष्ट का अनुभव न हो, इसके लिए डॉक्टर इंजेक्शन देते हैं, या गैस या क्लोरोफार्म सूँघाते हैं। इससे पीड़ा या दर्द का शमन हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया विशेष से मोहनीय कर्म प्रकृतियों के कुफल का शमन किया जाता है। किन्तु जिस प्रकार इंजेक्शन या दवा से दर्द का शमन होने पर घाव भरता जाता है, घाव भरने का समय भी कम होता जाता है, उसी प्रकार मोह-कर्म प्रकृतियों के फलभोग का उपशमन होने पर भी उनकी स्थिति, अनुभाग, एवं प्रदेश घटने की सम्भावना हो जाती है। वस्तुतः उपशमन आत्मशान्ति एवं आत्मशक्ति के प्रकटीकरण में सहायक होता है।' नियतविपाक और अनियतविपाक : एक चिन्तन
कर्मफल के सम्बन्ध में विचार करते समय यह नियम ध्यान में रखना चाहिए कि कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनका विपाक (फलभोग) नियत होता है, उनमें किसी भी प्रकार. का परिवर्तन नहीं किया जा सकता, उसे उसी रूप में अवश्य भोगना ही पड़ता है। जैसे कैंसर आदि असाध्य रोगों की पीड़ा को भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता, वैसे जिस कर्म के फल को भोगे बिना छुटकारा न हो सके, वह नियतविपाक रूप निकाचित कर्म है। निकाचित कर्म में संक्रमण, उदीरणा, उद्वर्तन या अपवर्तनकरण के रूप में परिवर्तन नहीं हो सकता। दूसरा कर्म अनियतविपाक रूप है, जिसमें संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन आदि के रूप में कर्मफल में परिवर्तन हो सकता है।
जैन परिभाषा में इन दोनों को क्रमशः निकाचित (जिसका विपाक अन्यथा न हो सके) और अनिकाचित (जिसका विपाक अन्यथा भी हो सकता है, ऐसा ) कर्म । इन्हें ही दूसरे शब्दों में इन्हें निरुपक्रम (जिसका कोई प्रतीकार न हो सके, उदय अन्यथा न हो सके) और सोपक्रम (जो उपचार- साध्य हो ) कहा गया है।
'निकाचित कर्म का लक्षण यह है कि जिनका बन्ध जिस विपाक को लेकर होता है, उसी विपाक के द्वारा वे क्षय (निर्जरित) होते हैं। दूसरे अनिकाचित कर्म होते हैं, जिनका
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(क) जैन बौद्ध गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भा. १ (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश ग्रहण, पृ. ३२०
(ख) जिनवाणी : कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'करणसिद्धान्त : भाग्य निर्माण की
प्रक्रिया' लेख से पृ. ८७
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