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४०० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
प्रासाद खड़ा किया है। इसी आधार पर कर्मप्रकृतियों को विपाक (फलदान) की दृष्टि से चार भागों में बांटा गया है। वे इस प्रकार हैं- क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, और भवविपाकी । कर्मविपाक के नियम द्रव्यादि चारों या पांचों पर अथवा क्षेत्रविपाकी आदि चारों बुनियादों पर आधारित हैं।?
कर्मविपाक का द्रव्यगत नियम
कर्मविपाक का एक निमित्त है - द्रव्य । द्रव्यरूप निमित्त पर भी कर्मफल (विपाक) के नियमों का दारोमदार है। प्रज्ञापनासूत्र में द्रव्यरूप निमित्त में पुद्गल और पुद्गलपरिणाम को बताया है। किसी व्यक्ति ने अहितकर, अमनोज्ञ या दूषित अथवा विषमिश्रित भोजन किया। उससे रोग हो गया। रोग होने से असातावेदनीय कर्म का उदय हुआ। यहाँ असातावेदनीय कर्म के फलोन्मुख होने में अहितकर भोजनरूप पुद्गल का परिणाम निमित्त बना।
क्षेत्र के निमित्त से होने वाले कर्मविपाक के नियम
कर्म के विपाक का एक निमित्त है - क्षेत्र । किसी क्षेत्र में किसी कर्म का विपाक होता है, वह कर्म उदय में आकर फलोन्मुख हो जाता है, जबकि दूसरे क्षेत्र में, उस कर्म का विपाक नहीं होता। जैसे उटकमण्ड (ऊटी), आदि शीतप्रधान क्षेत्र हैं, जबकि राजस्थान, अफ्रीका, मद्रास आदि उष्णप्रधान क्षेत्र हैं। शीतप्रधान देश में शीतजन्य रोग अधिक होते हैं, उष्णता-प्रधान देश में उष्णताजन्य रोग अधिक होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का भौगोलिक (क्षेत्रगत ) तथा द्रव्यगत कारण भिन्न भिन्न होता है, उसी के अनुरूप कर्मों के विपाक में भिन्नता एवं तरतमता होती है। जिस क्षेत्र में गर्मी का प्रकोप अधिक होता है, वहाँ लू लगती है, जहाँ सर्दी का प्रकोप अधिक होता है, वहाँ जुकाम, फ्लू, आदि रोगों का आधिक्य होता है।
क्षेत्रगत भिन्नता के कारण विपाक में परिवर्तन हो जाता है। तमिलनाडु में रहने वाले व्यक्तियों को हाथीपगा रोग हो जाता है, उनके पैर हाथी के पैर की तरह सूज जाते हैं, परन्तु राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि में ऐसा नहीं होता । क्षेत्रगत निमित्त के कारण कर्म के विपाक (फलभोग) में यह अन्तर आ जाता है। बम्बई में रहने वाले अधिकांश लोगों को स्निग्ध वायु के कारण दमा, श्वास आदि की बीमारी हो जाती है, किन्तु राजस्थान में वैसा नहीं होता।
इस प्रकार कुछ लोगों ने ऐसे क्षेत्र को छोड़ दिया और अपना कारोबार मध्यप्रदेश
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(क) कर्मविज्ञान भा. १ खण्ड ३ में देखें - क्षेत्रविपाकी आदि कर्मप्रकृतियों का स्वरूप, पृ. ४९७ (ख) कर्मवाद से भावांश ग्रहण पृ. ७८
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