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३९४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम ( ५ ).
का मित्र! मैं हिंसा का तीन करण तीन योग से त्यागी हूँ, मेरे द्वारा इतनी घोर हिंसा, मानसिक हिंसा !! अर र ! इस हिंसा का मुझे कितना कुफल भोगना पड़ेगा ?"
"
पश्चात्ताप की पावनधारा अन्तर् में तीव्रगति से बहने लगी। राजर्षि के नरक के बन्धन क्रमशः टूटने लगे। राजर्षि का रोष और रौद्रध्यान कम होता गया । ज्यों-ज्यों ध्यान एवं रोष मन्द मन्दतर होता गया, त्यों-त्यों नारकीय बन्ध भी घटता गया। साथ ही पूर्वबद्ध सातवीं आदि नरकों के बंध की स्थिति तथा अनुभाग कम होकर पहली नरक में अपवर्तित हो गए।
तत्पश्चात् परिणामों में और विशुद्धि आई । वे मन ही मन पश्चात्ताप के साथ सबसे क्षमायाचना करने लगे। रोष, जोश शान्त हुआ, सन्तोष और मैत्रीभाव बढ़ा। अतः पूर्वबद्ध नरकगति का बन्ध देवगति में रूपान्तरित हो गया; संक्रमित हो गया। फिर गुणस्थान की श्रेणी क्रमशः चढ़ते चढ़ते भावों में अत्यन्त विशुद्धि हुई, कषायों का उपशमन हुआ। अतः अनुत्तरविमान- देवगति का बन्ध हुआ । तत्पश्चात् भावों की विशेष विशुद्धि तथा स्वरूप- रमणता तीव्र होने से पर भावों एवं विभावों से किनाराकशी कर ली। फलतः पापकर्मों का स्थितिघात और रसघात हो गया। कर्मों की तीव्रतापूर्वक उदीरणा हुई। फिर कषायों का सर्वथा क्षय होने से वीतरागता और केवलज्ञान सम्पदा प्राप्त हुई।
इस प्रकार प्रसन्नचन्द्र राजर्षि विपाक -विचय की साधना से, तथा वर्तमान में प्रचलित, भावों की विशुद्धि के पुरुषार्थ से तथा पूर्वबद्ध कर्मों का उर्षण, अपकर्षण, संक्रमण एवं उदीरणा आदि क्रियाएं (करण) होने से कृतकृत्य हो गए। शीघ्र ही सर्वकर्मक्षय करके वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए।'
यह है विपाकविचय के अनुप्रेक्षण का सुफल ।
पूर्वबद्ध पाप-पुण्य कर्मों की स्थिति और अनुभाग में संक्रमण का नियम
अतः कर्मफल का यह नियम प्रतिफलित हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्वजन्म में बद्ध या इस जन्म में पूर्वकृत अशुभ एवं दुःखद पापकर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को वर्तमान में अपनी शुभ प्रवृत्तियों से शुभकर्म बांधकर घटा सकता है और शुभ तथा सुखद पुण्यकर्मों में संक्रमित कर सकता है। इसके विपरीत वर्तमान में अपनी दुष्प्रवृत्तियों से अशुभ पापकर्म बांधकर पूर्वबद्ध शुभ - सुखद कर्मों को अशुभ - दुःखद कर्मों के रूप में संक्रमित कर सकता है।
१. (क) देखें, तीर्थंकर महावीर (श्रीचन्द्र सुराना) में प्रसन्नचन्द्र राजर्षिवृत्त
(ख) जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित "करण सिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया" लेख से भावांश ग्रहण पृ. ८८-८९
२ . वही, पृ. ८९
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