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विविध कर्मफलः विभिन्न नियमों से बंधे हुए
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादि के नियमानुसार वनस्पतिजगत् में फलों की विविधता
वनस्पतिजगत् में हम देखते हैं, कि विभिन्न प्रकार के अनाज, पेड़, पौधे, लता आदि अपनी-अपनी प्रकृति (स्वभाव), अपने-अपने क्षेत्र, अपने-अपने काल (समय) और अपने-अपने प्रकार (द्रव्य) के नियमानुसार फलित होते हैं। वनस्पतिजगत् के किसी भी अंग (वृक्ष, पौधे, अन्न आदि) का द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव (स्वभाव) के विभिन्न नियमों के अनुसार परिपाक (परिपक्व) होने पर उनमें विचित्र प्रकार के फल लगते हैं या फसल होती है। उनमें से कई फल तो परिपक्व होने पर खट्टे, मीठे, फीके, कड़वे, चरपरे आदि होते हैं, कई सरस होते हैं, कई नीरस, कई पुष्टिकारक और कई हानिकारक, कई अच्छे और कई खराब होते हैं। कई फल या फसल देर से, कई शीघ्र, कई वसन्तऋतु में, कई ग्रीष्म, वर्षा, या शरद् ऋतु में पकते हैं।
ये फल भी पेड़, पौधों या बेलों की पृथक्-पृथक् जाति और प्रकृति के अनुसार, तथा शीतप्रधान, उष्णताप्रधान अथवा समशीतोष्ण क्षेत्र के अनुसार, एवं पथरीली, रेतीली, ऊषर अथवा चिकनी मिट्टी वाली भूमि के अनुसार विभिन्न किस्म के होते हैं। एक जाति के वृक्षों के भी विभिन्न स्वभाव (प्रकृति), प्रकार, विभिन्न क्षेत्र एवं विभिन्न काल में तथा वृक्षारोपण या बीजारोपण करने वाले के कौशल, भाव, संरक्षण एवं संवर्धन के अनुसार विचित्र किस्म के फल आते हैं।
वनस्पतिजगत् में ऐसी विभिन्नता और विचित्रता क्यों दृष्टिगोचर होती है ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि उनके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बन्धित अमुक-अमुक नियम होते हैं। यह नियमबद्धता ही उनकी विभिन्नता, विविधता और विचित्रता के कारण हैं।
कर्मजगत् में भी द्रव्य-क्षेत्रादि के नियमानुसार कर्मफल की विभिन्नता
ठीक यही बात आध्यात्मिक जगत् में विविध कर्मरूपी वृक्ष के विभिन्न फलों के विषय में समझ लेनी चाहिए। ये कर्म भी अपनी आठ प्रकार की मूल प्रकृति के तथा
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