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३८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) कर्मफल स्वेच्छा से शीघ्र भोगने और अनिच्छा से बाद में भोगने में अन्तर
इसीलिए एक जैनाचार्य ने कहा है-“स्वकृतकों के बन्ध का विपाक (फल) खेद रहित होकर अभी नहीं सहन करोगे (नहीं भोगोगे) तो फिर कभी न कभी सहन करना ही पड़ेगा। यदि वह कर्मफल स्वेच्छा से स्वयं भोग लोगे तो दुःख से शीघ्र छुटकारा हो जाएगा। यदि अनिच्छा से भोगोगे तो वह सौ भवों में गमन का कारण भी हो जाएगा।" द्रव्यदृष्टि से कर्मफल-नियम का विविध पहलुओं से विचार
द्रव्यदृष्टि से कर्मफल का यह नियम भी है-मनुष्य जिस प्रकार की प्रकृति का है, जैसे स्वभाव या संस्कार का है, कर्म का बन्ध भी वह उसी प्रकार का- तीव्र या मन्दरूप से करेगा, और फिर कर्म का फल भी तीव्र या मन्दरूप से भोगेगा। अगर कर्मकर्ता विवेकी है, सम्यग्दृष्टि है, जाग्रत है और अप्रमत्त है तो निरर्थक कर्म नहीं करेगा, जिस कर्म का करना अनिवार्य होगा, अथवा मन से, वचन से या काया से जिस कर्म को करना आवश्यक होगा, उसे भी मन्द राग, मन्द क्रोधादिवश फूंक फूंक कर करेगा, प्रशस्त रागवश करेगा, अप्रशस्त राग-द्वेष से या तीव्र कषायभाव से नहीं करेगा। इस कारण कर्मबन्ध भी बहुत हलका होगा और उक्त कर्म का फल भोग (विपाक) भी शुभ, सुखद
और प्रशस्त होगा। ___अगर कर्मकर्ता अविवेकी है, मिथ्यादृष्टि है, प्रमादी है, अजाग्रत है तो या तो वह उद्धत या धृष्ट होकर स्वेच्छाचारितापूर्वक बेरोक-टोक कर्म करेगा, वह आसुरी शक्तियुक्त व्यक्ति मद, अहंकार और अहंकर्तृत्व से प्रेरित होकर कर्म करेंगा, निरर्थक या हिंसादिजन्य कर्म भी करेगा, उसको अपने जीवन में यह बोध प्रायः नहीं होगा, कि मैं जो कुछ कर्म कर रहा हूँ, उसका कितना कटुफल भोगना पड़ेगा? कर्म करते समय उसका कषाय भी प्रायः मन्द नहीं होगा, रागद्वेष भी मन्द नहीं होगा। फलतः उस कर्म का फल भी दुःखद ही होगा। एक ही समय में एक ही कर्म करने वाले दो व्यक्तियों के कर्मफल में द्रव्यदृष्टि से काफी अन्तर आ जाएगा।
द्रव्यदृष्टि से कर्मफल के नियम का एक फलितार्थ यह भी सम्भव है कि एक कर्म दूसरे विजातीय कर्म का फल नहीं दे सकता। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र आदि कर्मों का फल नहीं दे सकता। ज्ञानावरणीय कर्म बंधा हुआ है, तो वह ज्ञानगुण को ही आवृत करेगा, आयुष्य कर्म या नाम गोत्र आदि कर्मों का फलभोग नहीं करायेगा। अर्थात्-जिस-जिस कर्म का बन्ध है, उस-उस कर्म का ही जो फलानुभाव है, वही फल वह कर्म दे सकता है। अन्य कर्म का फल अन्य कर्म नहीं दे सकता। १. "स्वकृत-परिणामानां दुर्नयानां विपाकः। पुनरपि सहनीयोऽत्र ते निर्गुणस्य। .. स्वयमनुभवताऽसौ दुःखक्षयाय सद्यो, भवशतगतिहेतुर्जायते ऽनिच्छतस्ते॥" -एक जैनाचार्य
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