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विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३८५ समय में वेदन होता है तीसरे समय में निर्जीर्ण होकर बिना फल दिये ही वापस चले जाते हैं। वीतराग घातिकर्मरहित केवली महापुरुषों के वे कर्म चिपकते नहीं, इसलिए सिर्फ सुख-स्पर्श करके वापस चले जाते हैं।
अथवा पाषाण सोना आदि जो आपस में मिलकर श्लिष्ट हो जाते हैं, एक दूसरे से सम्बद्ध हो जाते हैं, वे बद्ध तो हैं, किन्तु जीव के रागद्वेषादि परिणामों से बद्ध नहीं हैं, कर्मरूप में बद्ध नहीं है। अतएव वे कर्मफल के योग्य नहीं होते हैं।
(२) स्पृष्ट-आत्मप्रदेशों के साथ सम्बद्ध को स्पृष्ट कहते हैं। अर्थात्-जो कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मप्रदेशों के साथ पूर्वोक्तरूप से बद्ध तो नहीं हैं, किन्तु जीव के कषायादि परिणामों से आकृष्ट कर्मपरमाणु साम्परायिक आसव के रूप में जीव के आत्मप्रदेशों में प्रविष्ट हो गए हैं, वे स्पृष्ट कहलाते हैं।
वीतराग केवली भगवन्तों के चार घाती कर्म तो नष्ट हो गए हैं, किन्तु भवोपग्राही चार अघाती कर्म शेष रहते हैं, किन्तु कषाय न होने से वे कर्मपरमाणु ऐपिथिक आम्नव के रूप में आते अवश्य हैं, मगर दो-तीन समय के लिए स्पर्श करके बिना फल दिये ही वापस चले जाते हैं। वे कर्म अबन्धक (शुद्ध) कहलाते हैं, इसलिए फल देने (विपाक) के योग्य नहीं होते। - अथवा पाषाण, स्वर्ण, आदि जो एक-दूसरे से केवल स्पृष्ट हैं, उनके पीछे कोई राग-द्वेषादि नहीं है, न ही कर्मपुद्गलों से उनका कोई वास्ता है, अतः ऐसे अजीव (पौद्गलिक) स्पर्श से स्पृष्ट पुद्गल कर्मफल के योग्य नहीं होते।
__ (३) बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट-जो कर्म पुद्गल जीव के तीव्र रागद्वेषादि या तीव्र कषाय परिणामों से गाढ़तर रूप से बद्ध हैं, परस्पर एक दूसरे के साथ गाढ़तर रूप से स्पृष्ट (श्लिष्ट) हैं, वे बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट कहलाते हैं। अर्थात् जो कर्म आवेष्टन-परिवेष्टन रूप से अत्यन्त गाढ़तरबद्ध हैं। ऐसे कर्म ही फल देने (विपाक के) योग्य होते हैं। कई कर्म ऐसे होते हैं, जो निकाचित रूप में बंधे हुए होते हैं, रागादि की अत्यन्त स्निग्धता के कारण जो आत्मप्रदेशों के साथ गाढ़तम रूप से श्लिष्ट हो गए हैं, उनका फल जीव को अवश्य ही भोगना पड़ता है।
(४) संचित-जो कर्म बंधने के पश्चात् अभी सत्ता में पड़े हुए हैं, ऐसे संचित कर्म अबाधाकाल पूर्ण होने के पश्चात् ही फल देने योग्य होते हैं। संचित कर्म जब तक उदय में
न आएं, अथवा फल देने से पहले उनकी उदीरणा न की हो, तब तक वे कर्म फल देने के '. योग्य होते हुए भी कर्मफल नहीं दे पाते हैं।
संचित कर्मों को कर्मफल देने के योग्य इसलिए माना गया है कि अगर जीव . जाग्रत होकर उदय में आने से पूर्व ही उन कर्मों की उदीरणा करके (उदयकाल से पूर्व ही)
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