________________
कर्म- महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३६३
परीषह और अज्ञान परीषह होते हैं। दर्शनमोहकर्म से अदर्शन और अन्तरायकर्म से अलाभ परीषह होते हैं। चारित्रमोह से नग्नत्व ( अचेलकत्व), अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परीषह होते हैं। शेष सभी परीषह वेदनीयकर्म से होते हैं ।"
कर्मवृक्ष से सम्बन्धित विशेष फल
यह तो हुई कर्मरूपी महावृक्ष के सामान्य फल की बात। कर्मवृक्ष के विशेष फल से सम्बन्धित कई तथ्य भी 'गौतमपृच्छा' तथा आगमों और ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गए हैं। गौतमपृच्छा में पुण्य और पापकर्म के विशेष फलों का निरूपण प्रश्नोत्तर रूप से विस्तारपूर्वक अंकित है।
सर्वज्ञ परम आप्त वीतराग तीर्थंकर भगवान् महावीर से गणधर गौतम स्वामी ने विनयपूर्वक कुछ प्रश्न पाप-पुण्यकर्म के सम्बन्ध में किये, जिनका उत्तर भगवान् महावीर ने कर्मविज्ञान की दृष्टि से दिया।
विभिन्न पापकर्मों का विशेष फल
प्रश्न १. प्रभो! किस पापकर्म के फलस्वरूप मनुष्य निर्धनता और दरिद्रता के दुःख का अनुभव करता है ?
उत्तर १. गौतम ! जो व्यक्ति दूसरों के धन का हरण, चोरी, डकैती, लूट, ठगी और तस्करी आदि के रूप में करता है, तथा किसी दाता को दान देने से रोकता है, मना करता है; वह उक्त चौर्यरूप पापकर्म के उदय से निर्धनता और दरिद्रता का दुःख भोगता है । निष्कर्ष यह है कि दुर्भाग्य, दरिद्रता तथा गुलामी आदि चौर्यकर्म के फल हैं। चोरी, डकैती, तस्करी एवं लूटपाट करने वाले लाठी, घूंसे आदि खाते ही हैं, राज्य दण्डस्वरूप जेल भी भोगते हैं, परभव में भी नरक आदि की घोर यातनाएँ एवं वेदनाएँ भोगते हैं। व्यापार धन्धे में भी अनीति, अन्याय, ठगी आदि का आचरण, स्मगलिंग (तस्करी) द्वारा एक देश से दूसरे देश में माल ले जाना- लाना, चोरी के माल का क्रय-विक्रय, अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु की मिलावट करना, नाप-तौल में कम देना, ज्यादा लेना, अच्छी वस्तु दिखाकर बुरी वस्तु दे देना, अत्यधिक मुनाफा लेना, जमाखोरी करना आदि सब चौर्यकर्म के प्रकार हैं।
१. देखें तत्त्वार्थ सूत्र अ. ९ के - ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥१२ ॥
दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥१४॥
चारित्रमोहे नाग्न्यारति स्त्री- निषद्याऽऽक्रोश- याचना-सत्कार- पुरस्कारः ॥१५ ॥ वेदनीये शेषाः ॥ १६ ॥ इन सूत्रों पर विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ. २१७
२. (क) गौतम पृच्छा :- प्रश्नोत्तर १
(ख) जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'कर्मविपाक' लेख से भावांश ग्रहण पृ. ११९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org