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कर्म- महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३६१
पुद्गल और पुद्गल-परिणाम को लेकर विभिन्नता और विचित्रता प्राप्त हो जाती है। यही कारण है कि कर्मग्रन्थ आदि में इन पूर्वोक्त आठ कर्मों के फलविपाक की दृष्टि से चार या पाँच भेद बताये गए हैं
(१) जीव विपाकी, (२) पुद्गल - विपाकी, (३) क्षेत्रविपाकी, (४) भव- विपाकी और (५) कालविपाकी।
जिन कर्मों का फलविपाक जीव में होता है, उनकी जीवविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के फलस्वरूप जीव को अज्ञान, अदर्शन, सुख, दुःख, राग, द्वेष और मोह आदि भावों की और नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव आदि पर्यायों की उपलब्धि होती है।
पुद्गलविपाकी कर्मफल वह है, जिनका विपाक जीव के साथ एक क्षेत्रावगाहसम्बन्ध को प्राप्त पुद्गलों में होता है। उन फलदायक कर्मों के विपाक स्वरूप जीव को विविध प्रकार के शरीर, वचन और मन की उपलब्धि होती है। उन्हें पुद्गल-विपाकी कहते हैं।
जिन कर्मों का विपाक नर-नारक आदि भव में होता है, उनको भवविपाकी कहते हैं। इन फलदायी कर्मों के फलस्वरूप जीव का नरकादि गतियों में अवस्थान होता है ।
जिन कर्मों का विपाक (फल-भोग) किसी क्षेत्र विशेष में उपलब्ध होता है, उसे क्षेत्रविपाकी कर्म (फल) कहते हैं। इन कर्मों के फलस्वरूप जीव पुरातन शरीर का त्यागकर, नूतन शरीर को प्राप्त करने के लिए गमन करते हुए अन्तराल में पूर्व शरीर को भावी आकार में धारण करता है।'
फलदान शक्ति की मुख्यता की अपेक्षा पुण्य-पाप फल मधुर और कटु
इसके अतिरिक्त फलदान शक्ति की मुख्यता को लेकर इन सब कर्मों को पुण्यकर्म और पापकर्म के नाम से दो भेदों में विभक्त किया गया है। दान, भक्ति, मन्दकषाय, साधुसेवा, निर्लोभता (सन्तोष), जीवदया, परगुण- प्रशंसा (प्रमोद - भावना), सत्संगति, अतिथि सेवा, वैयावृत्य इत्यादि शुभ कर्मों के करने से तथा तदनुकूल अन्तःकरण की वृत्ति होने से जिन कर्मों की गुड़, खांड, द्राक्षा, मधु, शर्करा एवं अमृत आदि के समान मधुर फलदानशक्ति उपलब्ध होती है उनकी पुण्यकर्म संज्ञा है।
इसके विपरीत मदिरापान, मांस-सेवन, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, (स्त्रियों के लिए परपुरुषगमन, वेश्याकर्म), शिकार, जुआ खेलना, रात्रि भोजन करना, निन्दा चुगली करना, अतिथि के प्रति आदरभाव न होना, दुष्ट- दुर्जनों की संगति करना, परदोषदर्शन, कषाय की तीव्रता, लोभ की तीव्रता, सेवा भावना से शून्य वृत्ति इत्यादि
१. महाबंध भा. २ प्रस्तावना (कर्ममीमांसा) से पृ. २०
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