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कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३५३ पोग्गलपरिणामं पप्प-किसी पुद्गल के परिणाम को प्राप्त करके। अर्थात्-किसी पुद्गल-विशेष के परिणाम के योग से भी कोई कर्म उदय में आकर फल भुगवाता है। जैसे-मदिरापान के परिणामस्वरूप ज्ञानावरणीय कर्म उदय में आकर निद्रा, मूर्छा या बुद्धि-भ्रष्टता रूप फल भुगवाता है। अथवा खाये हुए आहार का पाचन न होने से असातावेदनीय का उदय होकर अतिसार, अजीर्ण, ऊर्ध्ववात (गैस) आदि रोगों का अनुभाव (फलभोग) कराता है।'
दर्शनावरणीय कर्म के नौ प्रकार के अनुभाव (फल) के विषय में इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। उनमें से निद्रादि पांच का स्वरूप इस प्रकार है
निद्रा-जिस नींद से सुखपूर्वक जागा जा सके। निद्रा-निद्रा-ऐसी गाढ़ी निद्रा, जो बड़ी कठिनाई से भंग हो। प्रचला-बैठे-बैठे आने वाली ऊँघ। प्रचला-प्रचला-चलते-फिरते आने वाली निद्रा।
स्त्यानर्द्धि-ऐसी प्रगाढ़ निद्रा या एक प्रकार की बेहोशी, जिसमें जीव अपनी शक्ति से अनेक गुणी शक्ति पाकर निद्रा ही निद्रा में प्रायः दिन में सोचे हुए असाधारण कार्य कर डालता है।
चक्षुदर्शनावरणीय आदि का स्वरूप-चक्षुदर्शनावरण-नेत्र के द्वारा होने वाले दर्शन (सामान्य उपयोग) का आवृत हो जाना। अचक्षुदर्शनावरण-नेत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से होने वाले सामान्य उपयोग (ज्ञान) का आवृत हो जाना। अवधिदर्शनावरण-अवधिदर्शन का आच्छादित हो जाना। केवल-दर्शनावरण-केवल दर्शन का आवृत हो जाना अर्थात्-केवलदर्शन को उत्पन्न न होने देना।
दर्शनावरणीय कर्म के फल प्रभाव-ज्ञानावरणीय कर्म की तरह दर्शनावरणीय कर्म में भी स्वयं उदय को प्राप्त अथवा दूसरे के द्वारा या दोनों के द्वारा उदीरित 'दर्शनावरणीय कर्म के उदय (फलोन्मुख होने) से इन्द्रियों के क्षयोपशम (लब्धि) और सामान्य उपयोग का आवरणरूप फल प्राप्त होता है। पूर्वोक्त ज्ञानावरणीय कर्म के समान
१. देखें, प्रज्ञापनासूत्र खण्ड ३, पद २३ के पंचम अनुभाव द्वार में दर्शनावरण-विपाक . सूत्र १६८० का विवेचन (आ. प्र. स. ब्यावर) पृ. २० । २. (क) सुह पडिबोहा णिद्दा, गिद्दाणिद्दा य दुक्खपडिबोहा।
पयला होइ ठियस्स उ, पयला-पयला उ चंकमतो॥१॥ थीणगिद्धि पुण अइसंकलिट्ठ कम्माणुवेयणे होइ।
महणिद्दा दिण-चिंतिय-वावार-पसाहणी पायं ॥२॥ (ख) प्रज्ञापना खण्ड ३, पद २३ सू. १६८0 का विवेचन, पृ. २२
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