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३३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम ( ५ )
व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र में इस तथ्य को विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है- "पिछले जन्म में किये हुए कर्मों (के फल) को इस लोक (जन्म) में भोगा जाता है, तथैव इस लोक (जन्म) में किये हुए कर्मों के (फल) को इस लोक (जन्म) में भोगा जाता है।' कर्मों का फलभोग शीघ्र, देर से और तत्काल : क्यों और कैसे?
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तात्पर्य यह है कि जिन कर्मों की स्थिति (कालसीमा) अत्यन्त अल्प होती है, वे तो अन्तर्मुहूर्त में ही अपना फल शुभ या अशुभ रूप में तथा तीव्र-मन्द रूप में प्रदान कर देते हैं । किन्तु जिन कर्मों की स्थिति दीर्घकालीन होती है, वे अपनी कालस्थिति के अनुरूप दीर्घकाल के पश्चात् उदय में आते हैं, फलोन्मुख होते हैं और अपना फल कर्ता के तीव्रमन्द परिणामानुरूप भुगवाते हैं। वे जन्म-जन्मान्तर तक आत्मा के साथ चलते रहते हैं. और हजारों-लाखों जन्मों के बाद अपने कर्मों का शुभाशुभ फल भुगवाते हैं।
जैनकर्मविज्ञान के इस तथ्य को व्यावहारिक रूप से यों भी समझा जा सकता है। जैसे - मनुष्य भोजन करता है, तो भोजन में ग्रहण किये हुए दूध, फल, चावल, दाल, रोटी, साग आदि पदार्थ पेट में डालते ही तुरंत रस, रक्त आदि के रूप में परिणत नहीं हो जाते। पेट में भोजन पहुंचने के बाद कुछ देर तक वे खाद्य पदार्थ पचते हैं, तत्पश्चात् रस, रक्त, वीर्य, मज्जा, मांस आदि के रूप में उनका परिणमन होता है। यदि व्यक्ति दाल, भात, दलिया, रोटी, साग आदि शीघ्र पचने वाले पदार्थों का आहार करता है तो शीघ्र ही उनका परिपाक हो जाने से उनका रस, रक्त, वीर्य आदि के रूप में शीघ्र ही परिणमन हो जाता है। इसके विपरीत यदि वह खीर, पूड़ी, हलवा, मिठाई, तली हुई आदि गरिष्ठ चीजों का आहार करता है, तो उनका परिपाक (पाचन) भी देर से होता है, फलतः उनका रस, रक्त, वीर्य आदि के रूप में परिणमन भी देर से होता है।
किन्तु कुछ औषधियाँ तथा इंजेक्शन ऐसे भी हैं, जिनके लेते ही तत्काल ये अपना प्रभाव दिखलाते हैं। अतीव शीघ्र उसका फलानुभव हो जाता है।
इसीलिए सर्वर्थसिद्धि में कहा गया है- "कर्म बंधते ही शीघ्र अपना फल देना प्रारम्भ नहीं करते; अपितु जिस प्रकार भोजन करते ही तुरन्त न पचकर जठराग्नि की तीव्रता - मन्दता के अनुसार पचता है, उसी प्रकार कर्मों का विपाक भी कषायों की तीव्रता मन्दता के अनुसार होता है। अतः कर्मों का फल देना कर्ता के कषायों पर निर्भर है। यदि
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" पर लोग कडा कम्मा इहलोए वेइज्जति, इहलोग कडा कम्मा इहलोए वेइज्जति । ”
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(क) देखें - कर्मवाद : एक अध्ययन, पृ. ६४-६५
(ख) तत्त्वार्थ- सर्वार्थसिद्धि (आ. पूज्यपाद) ८/२ पृ. ३७७
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- भगवतीसूत्र
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