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कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ? ३३९
तीव्र कषायपूर्वक कर्मों का आनव (या बंध) हुआ है, तो कर्म कुछ समय बाद शीघ्र ही अत्यधिक प्रबलतापूर्वक फल प्रदान करने लगते हैं। इसके विपरीत मन्दकषायपूर्वक हुए कर्मबन्ध से कर्म का विपाक देर से होता है।” कर्मविपाक के इस नियम को समझना चाहिए।
हिंसक की समृद्धि और अर्हद् भक्त की दरिद्रता : पापानुबंधी पुण्य तथा पुण्यानुबंधी पाप के कारण
इस विश्व में बहुत-से पापी, हिंसक, पर-पीड़क, अन्यायी, अत्याचारी या दुराचारी इस जन्म में सुखी, समृद्ध और फलते-फूलते नजर आते हैं, तो उसका मूल कारण यही है कि उनके पाप कर्मों में तीव्रतम परिणामों के कारण दुःखरूप फल देने की शक्ति अधिकतम और कालमर्यादा भी लम्बी पड़ी हुई है। उनके पापकर्मों के फलस्वरूप तत्काल बन्धने वाले कर्म लम्बे समय बाद उदय में तीव्ररूप में उदय में आएँगे, फलोन्मुख होंगे और अवश्य ही फल भुगवाएँगे। इसी प्रकार कोई धर्मात्मा पुरुष दुःखी, दरिद्र और विपद्ग्रस्त दिखाई पड़े, इतने मात्र से यह नहीं समझना चाहिए कि उसके द्वारा किये जाने वाले शुभ कर्म या शुद्ध (अबन्धक) कर्म निष्फल हैं।
जैनकर्म विज्ञान के आचार्यों की स्पष्ट उद्घोषणा है कि “हिंसक व्यक्ति की समृद्धि और अर्हद् भक्ति परायण पुरुष की दरिद्रता क्रमशः उनके द्वारा पूर्वकृत पापानुबन्धी पुण्यकर्म और पुण्यानुबंधी पापकर्म के कारण है। ये दोनों प्रकार के •अशुभ-शुभ कर्म कभी निष्फल नहीं होते। जन्मान्तर में इन दोनों कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ेगा। अतः कर्म कर्मफल और कर्मफलभोग में कार्य कारणभाव का कोई उल्लंघन नहीं है। ""
घोर पापकर्म का फल कई जन्मों बाद भी, एक जन्म में भी
. अन्तकृद्दशासूत्र में वर्णन है - गजसुकुमाल मुनि के सिर पर धधकते अंगारे रखकर मुनि हत्या करने की जो चेष्टा सोमिल ब्राह्मण द्वारा हुई है, वह भी गजसुकुमाल के जीव के ९९ लाख जन्मों पूर्व सोमिल के जीव के साथ बांधे हुए वैर का विपाक है। सौमिल की भी दूसरे दिन मुनिहत्या के घोर पापकर्म के फलस्वरूप दुःखद मृत्यु हुई।
१. " या हिंसावतोऽपि समृद्धिः, अर्हत्पूजावतोऽपि द्वारिद्र्यावाप्तिः, सा क्रमेण प्रागुपात्तस्य पापानुबन्धिनः पुण्यस्य, पुण्यानुबन्धिनः पापस्य च फलम् । तत्क्रियोपात्तं तु कर्म जन्मान्तरे फलिष्यन्ति इतिनात्र नियतकार्य-कारण-भावव्यभिचारः ।" - स्थानांग, अभयदेववृत्तिः ।
२. देखें - अन्तकृतदशांग सूत्र वर्ग ३ अ. ८ में गजसुकुमाल वर्णन
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